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हरिवंश
परिशिष्ट २
जैन ग्रन्थों के अनुसार हरिवंश की उत्पत्ति इस प्रकार है :
दसवें तीर्थंकर भगवान् शीतलनाथ के निर्वाण के पश्चात् और ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के पूर्व हरिवंश की स्थापना हुई । उस समय वत्स देश में कौशाम्बी नामक नगरी थी। वहां का राजा सुमुख था । उसने एक दिन वीरक नामक एक व्यक्ति की पत्नी वनमाला देखी। वनमाला का रूप अत्यन्त सून्दर था। वह उस पर मुग्ध हो गया। उसने वनमाला को राजमहलों में बुला लिया। पत्नी के विरह में वीरक अर्द्ध विक्षिप्त हो गया । वनमाला राजमहलों में आनन्द क्रीड़ा करने लगी।
एक दिन राजा सुमुख अपनी प्रिया वनमाला के साथ वन विहार को गया। वहां पर वीरक की दयनीय अवस्था देखकर अपने कुकृत्य के लिए पश्चात्ताप करने लगा-मैंने कितना भयंकर दुष्कृत्य किया है, मेरे ही कारण वीरक की यह अवस्था हुई है । वनमाला को भी अपने कृत्य पर पश्चाताप हुआ। उन्होंने उस समय सरल और भद्रपरिणामों के कारण मानव के आयु का बंधन किया। सहसा आकाश से विद्य त गिरने से दोनों का प्राणान्त हो गया, और वे हरिवास नामक भोगभूमि में युगल रूप में उत्पन्न हुए।
१. चउप्पन्न महापुरिस चरियं पृ० १८०
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