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________________ तीर्थङ्कर और वासुदेव में चारों ओर जो अधर्म का अंधकार छाया हुआ होता है उसे नष्ट कर धर्म का प्रकाश किया जाय । साधुओं का परित्राण, दुष्टों का नाश, और धर्म की स्थापना की जाय । जैन धर्म का विश्वास अवतारवाद में नहीं, उत्तारवाद में है । अवतारवाद में ईश्वर को स्वयं मानव बनकर पुण्य और पाप करने पड़ते हैं। भक्तों की रक्षा के लिए उसे अधर्म भी करना पड़ता है । स्वयं राग-द्व ेष से मुक्त होने पर भी भक्तों के लिए उसे राग भी करना पड़ता है और द्व ेष भी । वैदिक परम्परा के विचारकों ने इस विकृति को ईश्वर की लीला कहकर उस पर आवरण डालने का प्रयास किया है । जैनदृष्टि से मानव का उत्तार होता है । वह प्रथम विकृति से संस्कृति की और बढ़ता है फिर प्रकृति में पहुँच जाता है । राग-द्वेष युक्त जो मिथ्यात्व की अवस्था है, वह विकृति है । राग-द्व ेष मुक्त जो वीतराग अवस्था है वह संस्कृति है । पूर्ण रूप से कर्मों से मुक्त जो शुद्ध-सिद्ध अवस्था है, वह प्रकृति है । सिद्ध बनने का तात्पर्य है कि अनन्तकाल के लिए अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति में लीन हो जाना। वहां कर्म बंध और कर्म बंध के कारणों का सर्वथा अभाव होने से जीव पुन: संसार में नहीं आता । उत्तारवाद का अथ है मानव का विकारी जीवन से ऊपर उठकर भगवान के अविकारी जीवन तक पहुँच जाना, पुनः उसमें कदापि लिप्त न होना । तात्पर्य यह है कि जैनधर्म का तीर्थङ्कर ईश्वरीय अवतार नहीं है । जो लोग तीर्थङ्करों को अवतार मानते हैं, वे भ्रम में हैं । जैनधर्म का यह वज्र आघोष है कि प्रत्येक व्यक्ति साधना के द्वारा आन्तरिक शक्तियों का विकास कर तीर्थङ्कर बन सकता है । तीर्थङ्कर बनने के लिए जीवन में आन्तरिक शक्तियों का विकास परमावश्यक है । ५. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य परित्राणाय साधूनां धर्मसंस्थापनार्थाय Jain Education International तदात्मानं सृजाम्यहम् । विनाशाय च दुष्कृताम् । संभवामि युगे युगे । ७ - श्रीमद्भगवद् गीता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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