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________________ बाईस | है, उस नदी के दूसरे किनारे पर एक गाँव है । सायंकाल उस गाँव का धुआ दिखाई देता है । रात्रि में उस गाँव के कुत्ते भौंकते हुए सुनाई देते हैं, किन्तु हमारे गांव से उस गाँव का कोई सम्बन्ध नहीं है । आज तक उस गाँव को देखने के लिए हमारे गाँव से कोई गया नहीं और न उस गाँव से हमारे गाँव को देखने के लिए ही कोई लोग आए।" प्रस्तुत प्रसंग के प्रकाश में जब हम उपर्युक्त घटना देखते हैं तो उसकी सत्यता में हमें संशय नहीं हो सकता। ग्रन्थ लिखते समय ग्रन्थाभाव के कारण मेरे सामने अनेक समस्याएं उपस्थित हुई । ग्रन्थ का 'पूर्वभव-विभाग' प्रेस में जा चुका उसके पश्चात् लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद से प्रकाशित द्वितीय आचार्य हरिभद्र का रचित 'नेमिनाहचरिउ” का प्रथम भाग प्राप्त हुआ अतः मैं जानकर के भी उसका उपयोग न कर सका, द्वितीय भाग प्रेस में होने से वह मुझे प्राप्त न हो सका । अन्य कुछ दिगम्बर व श्वेताम्बर ग्रन्थ भी मुझे प्राप्त न हो सके । श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में जैन व अजैन विद्वानों ने इतना अधिक लिखा है कि उन सभी ग्नन्थों को प्राप्त कर उनका उपयोग करना अत्यन्त कठिन कार्य है, तथापि प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों के आलोक में तुलनात्मक दृष्टि से जो कुछ लिख गया हूँ वह उपयोगी सिद्ध होगा-यह मैं मानता हूँ। महामहिम परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य श्री पुष्कर मुनि जी म० का असीम अनुग्नह, आशीर्वाद तथा पथ-प्रदर्शन मेरे जीवन को सदा आलोकित करता रहा है। उनकी अपार कृपा दृष्टि के कारण ही मैं साहित्यिक क्षेत्र में प्रगति कर रहा हूँ, अतः गुरुदेव के प्रति किन शब्दों में आभार प्रदर्शित करू । आभार प्रदर्शन के लिए मेरे शब्द कोष में उचित शब्द ही नहीं हैं । मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि उनका आशीर्वाद सदा मिलता रहे और मैं प्रगति के पथ पर आगे बढ़ता रहूँ। परमादरणीया सतिशिरोमणि मातेश्वरी प्रतिभामूर्ति श्री प्रभावती जी म० तथा प्रिय बहिन परम विदुषी साध्वीरत्न श्री पुष्पवती जी साहित्यरत्न की प्रबल-प्रेरणा रही कि भगवान् अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण पर मैं शोधप्रधान ग्रन्थ लिखू, उनकी निरन्तर प्रेरणा के कारण मैं नन्थ प्रस्तुत कर सका है। माँ और बहिन के प्रेम भरे आग्रह को मैं कैसे टाल सकता था ? ___ आगम प्रभावक स्नेह सौजन्यमूर्ति श्री पुण्यविजय जी म० को तथा जैन साहित्य विकास मण्डल के अधिपति साहित्यप्रेमी सेठ अमृतलाल कालीदास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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