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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण इतने में श्रीकृष्ण को एक वीरक कौलिक दिखलाई दिया । श्रीकृष्ण ने उसे अपने पास बुलाकर पूछा-बतलाओ ! तुमने अपने जीवन में कभी कुछ वीरता का कार्य किया है ? ___ उसने कहा-मैंने अपने जीवन में कभी कोई कार्य ऐसा नहीं किया जो आपके सामने कथनीय हो।
श्रीकृष्ण-वीरक ! जरा सोचो, कभी कुछ न कुछ तो किया ही होगा । उसने अपनी बहादुरी के संस्मरण सुनाये । श्रीकृष्ण उसे लेकर राजसभा में आये । वीरक की वीरता का बखान करते हुए श्रीकृष्ण ने कहा- वीरक ने अपने जीवन में जो कार्य किये हैं वे इसकी जाति के गौरव से बढ़कर हैं। इसने एक बार भूमिशस्त्र (पत्थर) से बेर के पेड़ पर रहे हुए रक्तफन (काकीडा) वाले नाग को मार दिया। चक्र से खोदी हुई, कलुषित जल को वहन करने वालो गंगा नदी को अपने दाहिने पैर से रोक दिया । और नगरों को गटरों पर घोष करने वाली विराट् सेना को दाहिने हाथ से पकड़कर एक घड़े में पूर दिया, अतः यह महान वीर है। अपनी पुत्री केतुमंजरी इसे देकर मैं इसकी वीरता का सम्मान करता हूँ।
श्रीकृष्ण ने केतुमंजरी का वीरक के साथ पाणिग्रहण करा दिया । केतुमंजरी राजप्रासादों को छोड़कर घासफूस की नन्ही-सी झोंपड़ी में पहँच गई। वह सारे दिन पलंग पर बैठी-बैठी आदेश देती रहती कि वह कार्य करो, यह कार्य करो। और वीरक मदारी के बन्दर की तरह उसके संकेतों पर नाचता रहता। ___एक दिन श्रीकृष्ण ने वीरक से पूछा-कहो वीरक ! केतुमंजरी तुम्हारी आज्ञा का पालन तो करती है न ? तुम्हारे घर का सभी कार्य तो करती है ? तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं है ?
वीरक ने निवेदन किया-स्वामिन् ! मैं रात दिन उसकी सेवा में खड़ा रहता हूँ। वह जो भी आज्ञा करती है उसका सहर्ष पालन करता हूँ, तनिक मात्र भी उसे कष्ट नहीं देता।
श्रीकृष्ण ने कहा-वीरक ! मैंने तुम्हारा पाणिग्रहण इसीलिए नहीं करवाया है कि तुम रात दिन उसकी सेवा में लगे रहो। पत्नी यदि पति की सेवा नहीं करती, उसकी आज्ञा का पालन नहीं करती तो वह सच्ची पत्नी नहीं है, में तुम्हें आदेश देता हूँ कि आज से घर के सारे कार्य उससे कराया करो। यदि तुमने उससे कार्य नहीं
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