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तीर्थकर जीवन फँसी हूँ। अब मेरे लिए संसार को त्याग कर दीक्षा अंगीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है।३५ __ ऐसा दृढ़ संकल्प करके उसने कंघी से संवारे हुए भ्रमर-सदृश काले केशों को उखाड़ डाला । वह सर्व इन्द्रियों को जीतकर दीक्षा के लिए तैयार हुई। श्रीकृष्ण ने राजीमती को आशीर्वाद दिया-'हे कन्या ! इस भयंकर संसार सागर से तू शीघ्र तर ।३६' राजीमती ने भगवान् अरिष्टनेमि के पास अनेक राजकन्याओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। रथनेमि ने भी उस समय भगवान् के पास संयम संग्रहण किया। रथनेमि को प्रतिबोध :
एक दिन की घटना है । बादलों की गड़गड़ाहट से दिशाए काँप रही थीं, बिजलियाँ कौंध रही थीं। रैवतक का वनप्रान्तर सांयसांय कर रहा था। महासती राजीमती अन्य साध्वियों के साथ रैवतक गिरि पर चढ़ रही थी। सहसा छमाछम वर्षा होने लगी। साध्वियों का झुड आश्रय की खोज में इधर-उधर बिखर गया। दल से बिछुड़ी राजहंसी की तरह राजीमती ने वर्षा से बचने के लिए एक अंधेरी गुफा का आश्रय लिया। राजीमती ने एकान्त शान्त
३५. राईमई विचिन्तेइ धिरत्थु मम जीवियं । जा हं तेण परिच्चत्ता, सेयं पव्वइउ मम ॥
-उत्तराध्ययन २२।२६ ३६. अह सा भमरसन्निभे कुच्चफणगपसाहिए। सयमेव लुचई कैसे धिइमन्ता ववस्सिया ॥
-वहीं० २२।३० ३७. वासुदेवो य णं भणइ लुत्तकेसं जिइन्दियं । संसारसागरं घोरं, तर कन्ने ! लहु लहु ।
-उत्तराध्ययन २२।३१ ३८. (क) रायमई वि बहुयाहिं रायकण्णगाहिं सह निक्खंता।।
उत्तरा० सुखबोधा २६१ (ख) उत्तराध्ययन २२॥३२ ३६. रहनेमी वि संविग्गो पव्वइतो।
-वहीं० २८१
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