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पौषध : एक चिन्तन ।
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भगवतीसूत्र शतक १२ उद्देशक १ में शंख श्रावक का वर्णन है। वह श्रावस्ती का रहने वाला था तथा जीव आदि तत्त्वों का गम्भीर ज्ञाता था। उत्पला उसकी धर्मपत्नी थी। उसने भगवान् महावीर से अनेक जिज्ञासाएं कीं। समाधान पाकर वह परम संतुष्ट हुआ। अन्य प्रमुख श्रावकों के साथ वह श्रावस्ती की ओर लौट रहा था। उसने अन्य श्रमणोपासकों से कहा कि भोजन तैयार करें और हम भोजन करके फिर पाक्षिक पौषध आदि करेंगे। उसके पश्चात् शंख श्रावक ने ब्रह्मचर्यपूर्वक चन्दनविलेपन आदि को छोड़कर पौषधशाला में पौषध स्वीकार किया। पौषध का अर्थ है अपने निकट रहना। पर-स्वरूप से हटकर स्व-स्वरूप में स्थित होना। साधक दिन भर उपासनागह में अवस्थित होकर धर्मसाधना करता है। यह साधना दिन-रात की होती है। उस समय सभी प्रकार के अन्न-जल-मुखवास-मेवा आदि चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है, कामभोग का त्याग तथा रजत-स्वर्ण, मणि-मुक्ता आदि बहुमूल्य आभूषणों का त्याग, माल्य-गंध धारण का त्याग, हिंसक उपकरणों एवं समस्त दोषपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। जैन परम्परा में इस व्रत की आराधना व्रती श्रमणोपासक प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को करता है।
बौद्ध परम्परा में भी गृहस्थ उपासक के लिए उपोसथ व्रत आवश्यक माना गया है। सुत्तनिपात में लिखा है कि प्रत्येक पक्ष की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अष्टमी और प्रतिहार्य पक्ष को इस अष्टांग उपोसथ का श्रद्धापूर्वक सम्यक् रूप से पालन करना चाहिए।२४२ सुत्तनिपात में उपोसथ के नियम बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैं-१. प्राणीवध न करे, २. चोरी न करे, ३. असत्य न बोले, ४. मादक द्रव्य का सेवन न करे, ५. मैथुन से विरत रहे, ६. रात्रि में, विकाल में भोजन न करे, ७. माल्य एवं गंध का सेवन न करे, ८. उच्च शय्या का परित्याग कर जमीन पर शयन करे। ये आठ नियम उपोसथ-शील कहे जाते हैं।२४३ _ तुलनात्मक दृष्टि से जब हम इन नियमों का अध्ययन करते हैं तो दोनों ही परम्पराओं में बहुत कुछ समानता है। जैन परम्परा में भोजन सहित जो पौषध किया जाता है, उसे देशावकासिक व्रत कहा है। बौद्ध प्ररम्परा में
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