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६४ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
की वर्षा होती है, शरीर और वाणी से संयम रखता हूँ और आहार से नियमित रहकर सत्य से मन के दोषों की गोड़ाई करता हूँ । १७७ अंगुत्तरनिकाय दिट्ठवज्जसुत्त में तथागत ने कहा कि किसी तप या व्रत को करने से किसी के कुशल धर्म की अभिवृद्धि होती है और अकुशल धर्म नष्ट होते हैं तो उसे वह तप आदि अवश्य करना चाहिये । १७८ तथागत बुद्ध ने स्वयं कठिनतम तप तपा था । १७९ उनका तपोमय जीवन इस बात का ज्वलन्त प्रतीक है कि बौद्धसाधना में तप का विशिष्ट स्थान रहा है । बुद्ध मध्यममार्गी थे। इस कारण उनके द्वारा प्रतिपादित तप भी मध्यममार्गी ही रहा। उसमें उतनी कठोरता नहीं आ पाई।
विस्तार भय से हम अन्य आजीवक प्रभृति परम्परा में जो तप का स्वरूप रहा और विभिन्न परम्पराओं ने तप का विविध दृष्टियों से जो वर्गीकरण किया, उस पर यहाँ चिन्तन नहीं कर रहे हैं। हम संक्षेप में यही बताना चाहते हैं कि जैनपरम्परा ने जो तप का विश्लेषण किया है उस तप का उद्देश्य एकान्त आध्यात्मिक उत्कर्ष करना है। आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिये उसने ज्ञानसमन्वित तप को महत्त्व दिया है। जिस तप के पीछे समत्व की साधना नहीं है, भेद - विज्ञान का दिव्य आलोक जगमगा नहीं रहा है वह तप नहीं, ताप है / संताप है / परिताप है।
श्रमण भगवान् महावीर ने कहा- एक अज्ञानी साधक एक-एक महीने की तपस्या करता है और उस तप की परिसमाप्ति पर कुशाग्र जितना अन्न ग्रहण करता है। वह साधक ज्ञानी की सोलहवीं कला के बराबर भी धर्म का आचरण नहीं करता । १८० तप का प्रयोजन आत्म-परिशोधन है, न कि देह - दण्डन । जब हमें घी को तपाना होता है तो उसे पात्र में डालकर ही तपाया जा सकता है, इसीलिये घृत के साथ-साथ पात्र भी तप जाता है, जबकि हमारा हेतु तो घृत तपानां ही होता है । उसी प्रकार जब कोई तपस्वी साधक तपश्चर्या में तल्लीन होता है तो उसकी तपस्या का हेतु होता हैआत्मा को शोधना, किन्तु आत्मा को तपाने / शोधने की इस प्रक्रिया में शरीर स्वतः ही तप जाता है। चेष्टा आत्मशोधन की है किन्तु शरीर आत्मा का भाजन / पात्र होने से तपता है। जिस तप में मानसिक संक्लेश हो, पीड़ा हो, वह तप नहीं है। तप में आत्मा को आकुलता नहीं होती, क्योंकि तप तो आत्मा का आनन्द है। तप जाग्रत आत्मा की अनुभूति है। इससे मन की मलिनता नष्ट होती है, वासनाएँ शिथिल होती हैं; चेतना में नये आनन्द का आयाम खुल जाता है और नित्य नूतन अनुभूति होने लगती है। यह है तप का जीवन्त, जाग्रत और शाश्वत स्वरूप । तप एक ऐसी उष्मा है, जो विकार को नष्ट कर आत्मा को वीतराग बनाती है।
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