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६२ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
३. विवेक - आत्मा और देह, ये दोनों पृथक् हैं - इसका सही परिज्ञान उसको होता है। वह पूर्ण रूप से जागरूक होता है।
४. व्युत्सर्ग- वह सम्पूर्ण आसक्तियों से मुक्त होता है। वह प्रतिपल प्रतिक्षण वीतराग भाव की ओर गतिशील होता है।
भगवती१६४ और स्थानांग १६५ में शुक्लध्यान के क्षमा, मार्दव, आर्जव और मुक्ति ये चार आलम्बन बतलाए हैं। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ भी आगम साहित्य में प्रतिपादित हैं, वे इस प्रकार हैं
१. अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा - अनन्त भव- परम्परा के सम्बन्ध में चिन्तन
करना।
२. विपरिणामानुप्रेक्षा - वस्तु प्रतिपल-प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, शुभ पुद्गल अशुभ में बदल जाते हैं, इत्यादि चिन्तन ।
३. अशुभानुप्रेक्षा - संसार के अशुभ स्वरूप पर चिन्तन करने से उन पदार्थों के प्रति आसक्ति समाप्त होती है और मन में निर्वेद भाव पैदा होता है।
४. अपायानुप्रेक्षा- पाप के आचरण से अशुभ कर्मों का बन्धन होता है, जिससे आत्मा को विविध गतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है, अतः उनके कटु परिणाम पर चिन्तन करना ।
ये चारों अनुप्रेक्षाएँ शुक्लध्यान की प्रारम्भिक अवस्थाओं में होती हैं, जब धीरे-धीरे स्थिरता आ जाती है तो स्वतः ही बाह्योन्मुखता समाप्त हो जाती है।
आभ्यन्तरं तप का छठा प्रकार व्युत्सर्ग है। इस तप की साधना से जीवन में निर्ममत्व, निस्पृहता, अनासक्ति और निर्भयता की भव्य भावना लहराने लगती है। व्युत्सर्ग में 'वि' उपसर्ग है। 'वि' का अर्थ है - विशिष्ट और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग। आशा और ममत्व आदि का परित्याग ही व्युत्सर्ग है। दिगम्बर आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्तिक १६६ में व्युत्सर्ग की परिभाषा करते हुए लिखा है - निस्संगता, अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग उत्सर्ग है। आत्मसाधना के लिये अपने-आप का उत्सर्ग करना व्युत्सर्ग है। आचार्य भद्रबाहु १६७ ने व्युत्सर्ग करने वाले साधक के अन्तर्मानस का चित्रण करते हुए लिखा है - यह शरीर अन्य है और मेरा आत्मा अन्य है। शरीर नाशवान् है, आत्मा शाश्वत है । व्युत्सर्ग करने वाला साधक स्व के
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