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भगवती सूत्र : एक परिशीलन
के, भूतों के, जीवों के और सत्वों के प्राणों का अपहरण करता है। उस व्यक्ति को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ?
भगवान् महावीर ने कहा- उस व्यक्ति को पांचों क्रियाएँ लगती हैं।
भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देशक १० में कालोदायी ने भगवान् महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि दो व्यक्तियों में से एक अग्नि को जलाता है और दूसरा अग्नि को बुझाता है। दोनों में से अधिक पाप कौन करता है ?
भगवान् ने समाधान दिया कि जो अग्नि को प्रज्वलित करता है, वह अधिक कर्मयुक्त, अधिक क्रियायुक्त, अधिक आम्रवयुक्त और अधिक वेदनायुक्त कर्मों का बन्धन करता है। उसकी अपेक्षा बुझाने वाला व्यक्ति कम पाप करता है। अग्नि प्रज्वलित करने वाला पृथ्वीकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक सभी प्रकार के जीवों की हिंसा करता है, जबकि बुझाने वाला उससे कम हिंसा करता है।
भगवतीसूत्र शतक ८, उद्देशक ६ में गणधर गौतम ने पूछा- एक श्रमण भिक्षा के लिए गृहस्थ के यहाँ गया। वहाँ पर उसे कुछ दोष लग गया। वह श्रमण सोचने लगा कि मैं स्थान पर पहुँच कर स्थविर मुनियों के पास आलोचना करूँगा और विधिवत् प्रायश्चित्त लूँगा । वह स्थविरों की सेवा में पहुँचा । पर उसके पूर्व ही स्थविर रुग्ण हो गये तथा उनकी वाणी बन्द हो गई। वह श्रमण प्रायश्चित्त ग्रहण नहीं कर सका तो वह आराधक है या विराधक ?
भगवान् ने कहा- वह आराधक है, क्योंकि उसके मन में पाप की आलोचना करने की भावना थी । यदि वह श्रमण स्वयं भी मूक हो जाता, पाप को प्रकट नहीं कर पाता तो भी वह आराधक था। क्योंकि उसके अन्तर्मानस में आलोचना कर पाप से मुक्त होने की भावना थी । पाप का सम्बन्ध भावना पर अधिक अवलम्बित है।
इस प्रकार भगवती में विविध प्रश्न पाप से निवृत्त होने के सम्बन्ध में पूछे गये। उन सभी प्रश्नों का सटीक समाधान भगवान् महावीर ने प्रदान किया है। पाप की उत्पत्ति मुख्य रूप से राग-द्वेष और मोह के कारण होती है । जितनी - जितनी उनकी प्रधानता होगी, उतना उतना पाप का अनुबन्धन तीव्र और तीव्रतर होगा। जैन-धर्म में पाप के प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान आदि अठारह प्रकार बताये हैं।
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