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भगवती सूत्र : एक परिशीलन ३७ सन्त जीवन की महिमा और प्रकार
जैन साहित्य में सन्त की महिमा और गरिमा का यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है। सन्त का जीवन एक अनूठा जीवन होता है। वह संसार में रहकर भी संसार के विषय-विकारों से अलिप्त रहता है। अलिप्त रहने से उसके जीवन में सुख का सागर लहराता रहता है। गणधर गौतम के अन्तर्मानस में यह जिज्ञासा उबुद्ध हुई कि श्रमण के जीवन में सुख की मात्रा कितनी है ? देवगण परम सुखी कहलाते हैं तो क्या श्रमण का सुख देवताओं के सुख से कम है या ज्यादा ? उन्होंने अपनी जिज्ञासा भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत की। महावीर ने गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहातराजू के एक पलड़े में जिस श्रमण की दीक्षापर्याय एक मास की हुई हो, उसके जीवन में जो सुख है उसको रखा जाये और दूसरे पलड़े में वाणव्यन्तर देवों के सुख को रखा जाये तो वाणव्यन्तर की अपेक्षा उस श्रमण के सख का पलड़ा भारी रहेगा। इसी प्रकार दो मास के श्रमण के सुख के सामने भवनवासी देवों का सुख नगण्य है। इस तरह बारह मास की दीक्षापर्याय वाले श्रमण को जो सुख है, वह सुख अनुत्तरौपपातिक देवों को भी नहीं है। आध्यात्मिक सुख के सामने भौतिक सुख कितना तुच्छ है, यह स्पष्ट किया गया है। अनुत्तर विमानवासी देवों का सुख भी, जो श्रमण आत्मस्थ हैं, उनके सामने नगण्य है।९३
भगवतीसूत्र में श्रमण निर्ग्रन्थों के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से चिन्तन किया है। गौतम ने जिज्ञासा प्रकट की कि भगवन् ! निर्ग्रन्थ कितने प्रकार के
हैं ?
भगवान् ने निर्ग्रन्थों के पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक-ये पांच प्रकार बताये और प्रत्येक के पांच-पांच अन्य प्रकार भी बताये हैं।९४ गौतम ने यह भी जिज्ञासा प्रस्तुत की कि संयमी के कितने प्रकार है? भगवान् ने सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्ध संयत, सूक्ष्मसम्पराय संयत और यथाख्यात संयत, ये पांच प्रकार बताये और उनके भी भेदोपभेदों का कथन किया है।९५
श्रमण केवल वेशपरिवर्तन करने से ही नहीं होता। उसके जीवन में आगमोक्त सद्गुणों का प्राधान्य होना चाहिये। श्रमण के जीवन में जिन गुणों की अपेक्षा है उसकी चर्चा भगवतीसूत्र, शतक १, उद्देशक ९ में इस प्रकार की है-श्रमण को नम्र होना चाहिये। उसकी इच्छायें अल्प हों, पदार्थों के प्रति
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