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___ व्याख्याप्रज्ञप्ति : अन्तरंग-दर्शन
Dooooooobudabad
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मंगल
वर्तमान में द्वादशांगी के ग्यारह अंग उपलब्ध हैं। बारहवाँ अंग दृष्टिवाद इस समय विच्छिन्न हो चुका है। ग्यारह अंगों में से केवल भगवतीसूत्र के प्रारम्भ में ही मंगलवाक्य है। अन्य किसी भी अंग सूत्र में मंगलवाक्य नहीं है। सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि भगवती में ही मंगलवाक्य क्यों है ? इस जिज्ञासा का समाधान दो दृष्टियों से किया जाता है-एक तर्क की दृष्टि से, दूसरा श्रद्धा की दृष्टि से। तार्किक चिन्तकों का अभिमत है कि आगमयुग में मंगलवाक्य की परम्परा नहीं थी। मंगल, अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन ये चारों अनुबन्ध दार्शनिक युग की देन हैं। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही आगम का प्रारम्भ करते हैं, क्योंकि आगम स्वयं ही मंगल हैं। इसलिए उनमें मंगलवाक्य की आवश्यकता नहीं। दिगम्बर परम्परा के आचार्य वीरसेन और जिनसेन ने लिखा है कि आगम में मंगलवाक्य का नियम नहीं है, क्योंकि परमागम में चित्त को केन्द्रित करने से नियमतः मंगल का फल उपलब्ध हो जाता है।५६ अतः भगवती में जो मंगलवाक्य आये हैं वे प्रक्षिप्त होने चाहिए। जब यह धारणा चिन्तकों के मस्तिष्क में रूढ़ हो गई-ग्रन्थ के
आदि, मध्य और अन्त में मंगलवाक्य होना चाहिये, तभी से मंगलवाक्य लिखे गये।५७
श्रद्धा की दृष्टि से जब भगवती की रचना हुई तभी से मंगलवाक्य है। मंगल बहुत ही प्रिय शब्द है। अनन्तकाल से प्राणी मंगल की अन्वेषणा कर रहा है। मंगल के लिए गगनचम्बी पर्वतों की यात्राएँ की; विराटकाय समुद्र को लांघा; बीहड़ जंगलों को रौंद डाला; रक्त की नदियाँ बहाईं; अपार कष्ट सहन किए; पर मंगल नहीं मिला। कुछ समय के लिए किसी को मंगल समझ भी लिया गया, पर वस्तुतः वह मंगल सिद्ध नहीं हुआ। मंगल शब्द पर चिन्तन करते हुए आचार्य हरिभद्र ने लिखा-जिससे हित की प्राप्ति हो, वह मंगल है अथवा जो मत्पदवाच्य आत्मा को संसार से अलग करता है-वह मंगल है।५८ आचार्य मलधारी हेमचन्द्र का अभिमत है-जिससे आत्मा
शोभायमान हो, वह मंगल है या जिससे आनन्द और हर्ष प्राप्त होता है, वह Jain Education International
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