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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन २२१ अनुगामी अवधिज्ञान - सूर्य के प्रकाश के समान देशान्तर या भवान्तर में जाते हुए अवधिज्ञानी के साथ जाने वाला ज्ञान है। अनुमान - साधन से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है। जैसे- धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान । अनुयोग - सूत्र के साथ अर्थ की अनुकूल योजना अनुयोग है। अनेकसिद्ध - एक ही समय में अनेक जीवों का एक साथ सिद्ध होना । अनेकान्त - एक ही वस्तु में अनेकों क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती धर्मों, गुणों, स्वभावों व पर्यायों का प्रतिपादन । अन्यलिङ्गसिद्ध-परिव्राजक आदि अन्य लिङ्गों से सिद्ध होने वाली आत्माएं। अभिनिबोध- अर्थाभिमुख होकर इन्द्रिय और मन के आश्रय से अपने नियत विषय का जैसे -चक्षु से रूप का बोध | अर्थापत्ति- जहाँ अभीष्ट अर्थ से अनिष्ट की आपत्ति आए, जैसे"ब्राह्मण की हत्या नहीं करनी चाहिये" इस अभीष्ट अर्थ से अब्राह्मण घात की आपत्ति । यह ३२ सूत्र दोषों में से एक है। अर्थावग्रह - व्यक्त पदार्थ का ग्रहण अथवा व्यंजनावग्रह के अंतिम समय गृहीत शब्दादि अर्थ का अवग्रहण | अर्हन्त - जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमात्मा बन जाता है। उस परमात्मा की दो अवस्थाएं हैं- एक शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था और दूसरी शरीर रहित देह मुक्त अवस्था । पहली अवस्था को यहां अर्हन्त व दूसरी अवस्था को सिद्ध कहा जाता है। अवधिज्ञान - जो ज्ञान इन्द्रियों की सहायता के बिना ही मूर्त पदार्थों को ग्रहण करता है, वह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान अवधिज्ञान है। अवसर्पिणी- जिस काल में जीवों के अनुभव, आयु प्रमाण और शरीरादि क्रमशः घटते जाते हैं वह काल अवसर्पिणी काल है। यह दस कोटा कोटी सागरोपम का होता है। अविनाभाव - जिसके बिना जिसकी सिद्धि न हो । अविरति - हिंसादि पापों से विरत -अलग न होना । असत् - अविद्यमान पदार्थ असत् है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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