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आर्द्रक मुनि और पार्वापत्य की चर्चाएं
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कालास्यवेषी और स्थविर
संयम और तप का फल
गांगेय अनगार
कालास्यवेषी और स्थविर
भगवान पार्श्व मोक्ष प्राप्त कर चुके थे और उनके २५० वर्ष बाद जब भगवान महावीर का शासन चल रहा था, उस समय भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य कालास्यवेषीपुत्र अनगार विचर रहे थे। उस समय उन्होंने भगवान के स्थविर श्रमणों से कुछ मार्मिक प्रश्न पूछे
हे आर्यो ! सामायिक क्या है ? प्रत्याख्यान क्या है ? संयम क्या है ? संवर क्या है ? विवेक क्या है ? व्युत्सर्ग क्या है ? क्या आप इन्हें जानते हैं ?
उत्तर में उन स्थविरों ने कहा- आत्मा ही सामायिक है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग है।
कालास्यवैशिक अनगार- यदि आत्मा ही सामायिक है तो आप क्रोधादि कषायों की निन्दा क्यों करते हैं ?
स्थविर - संयम आदि के लिये ही क्रोधादि पापों की निन्दा की जाती है। निन्दा करने से पाप के प्रति जो लगाव है वह समाप्त हो जाता है।
कालास्यवैशिक-निन्दा संयम है या अनिन्दा संयम है ?
स्थविर - आत्मदोषों की निन्दा संयम है, अनिन्दा नहीं । पाप की निन्दा करने से दोषों का नाश होता है और आत्मा संयम में स्थापित होती है। जब तक दोषों को दोष रूप न समझा जाय, तब तक उससे बचा भी कैसे जा सकता है ?
इस प्रकार तात्त्विक चर्चा कर कालास्यवैशिक पुत्र समाधान पाते हैं ? उनके मन के संशय विलीन हो जाते हैं, और वे अपनी पूर्व-परम्परा का परित्याग कर भगवान महावीर की परम्परा को स्वीकार कर लेते हैं।
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