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भगवती सूत्र : एक परिशीलन अभयदेव ने अपनी वृत्ति के प्रारम्भ में चूर्णि का उल्लेख किया है, अतः प्राचीन टीका, चूर्णि नहीं हो सकती। वह अन्य वृत्ति ही होगी ।
प्रत्येक शतक की वृत्ति के अन्त में आचार्य अभयदेव ने वृत्तिसमाप्तिसूचक एक-एक श्लोक दिया है। वृत्ति के अन्त में आचार्य ने अपनी गुरुपरम्परा बताते हुए लिखा है - विक्रम संवत् ११२८ में अणहिल पाटण नगर में प्रस्तुत वृत्ति लिखी गई । इस वृत्ति का श्लोक प्रमाण अठारह हजार छः सौ सोलह है।
व्याख्याप्रज्ञप्ति पर दूसरी वृत्ति आचार्य मलयगिरि की है। यह वृत्ति द्वितीय शतक वृत्ति के रूप में विश्रुत है, जिसका श्लोकप्रमाण तीन हजार सात सौ पचास है। विक्रम संवत् १५८३ में हर्षकुल ने भगवती पर एक टीका लिखी | दानशेखर ने व्याख्याप्रज्ञप्ति लघुवृत्ति लिखी है। भावसागर ने और पद्मसुन्दर गणि ने भी व्याख्याएँ लिखी हैं। बीसवीं सदी में स्थानकवासी परम्परा के आचार्य श्री घासीलालजी म. ने भी भगवती पर व्याख्या लिखी है। इन सभी वृत्तियों की भाषा संस्कृत रही।
जब संस्कृत प्राकृत भाषाओं में टीकाओं की संख्या अत्यधिक बढ़ गई और उन टीकाओं में दार्शनिक चर्चाएँ चरम सीमा पर पहुँच गईं, जनसाधारण के लिए उन टीकाओं को समझना जब बहुत ही कठिन हो गया तब जनहित की दृष्टि से आगमों की शब्दार्थप्रधान संक्षिप्त टीकाएँ निर्मित हुईं। ये टीकाएँ बहुत संक्षिप्त लोकभाषाओं में सरल और सुबोध शैली में लिखी गयीं । विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में स्थानकवासी आचार्य मुनि धर्मसिंहजी ने टब्बाओं का निर्माण किया। कहा जाता है कि उन्होंने सत्ताईस आगमों पर बालावबोध टब्बे लिखे थे। उसमें एक टब्बा व्याख्या प्रज्ञप्ति पर था | धर्मसिंह मुनि ने भगवती का एक यन्त्र भी लिखा था।
टब्बा के पश्चात् अनुवाद प्रारम्भ हुआ। मुख्य रूप से आगम साहित्य का अनुवाद तीन भाषाओं में उपलब्ध है - अंग्रेजी, गुजराती और हिन्दी । भगवतीसूत्र के १४वें शतक का अनुवाद Hoernle Appendix ने किया और गुजराती अनुवाद पं. भगवानदास दोशी, पं. बेचरदास दोशी, गोपालदास जीवाभाई पटेल और घासीलालजी म. आदि ने किया । हिन्दी अनुवाद आचार्य. अमोलकऋषिजी, मदनकुमार मेहता, पं. घेवरचन्दजी बांठिया आदि ने किया है।
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