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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन १११ पर्याप्तियों को पूरा नहीं किया है पर करेगा वह करणअपर्याप्त है। यहाँ पर यह स्मरण रखना है-देव और नारक लब्ध्यपर्याप्त नहीं होते पर करण-अपर्याप्त होते हैं। मनुष्य और तिर्यञ्च जीव दोनों ही प्रकार के अपर्याप्तक होते हैं। विकलेन्द्रियों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये तीन प्रकार हैं। जिन जीवों के सम्पूर्ण इन्द्रियां नहीं होती हैं वे विकलेन्द्रिय कहलाते हैं। दो इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव विकलेन्द्रिय हैं। ___ पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-संज्ञी और असंज्ञी। समनस्क को संज्ञी कहा है। यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उबुद्ध होता है कि समनस्क और संज्ञी इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है या भिन्न-भिन्न ? उत्तर में निवेदन है-संज्ञी और समनस्क ये दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। क्योंकि जो जीव संज्ञी है वह मन वाला अवश्य होगा। आगम साहित्य में संज्ञी शब्द का प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है तो दार्शनिक साहित्य में समनस्क शब्द का। जब दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है तो दार्शनिकों ने समनस्क शब्द का व्यवहार क्यों किया है ? हमारी दृष्टि से संज्ञा शब्द अनेक अर्थों को व्यक्त करता है। संज्ञा का सामान्य अर्थ है-चेतना या ज्ञान। चेतना और ज्ञान ये दोनों एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में भी हैं। पर वे संज्ञी नहीं हैं। किन्तु यहाँ पर संज्ञी से ज्ञानसंज्ञा वाले जीवों को ग्रहण नहीं किया है। अनुभवसंज्ञा के भी आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा ये चार प्रकार हैं। आहारसंज्ञा वेदनीयकर्म का उदय है और शेष तीनों संज्ञा मोहनीयकर्म के उदय का फल हैं। अनुभव-संज्ञा भी सभी संसारी जीवों में होती है। __ आगम साहित्य में संज्ञा के दस प्रकार भी बताये हैं-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा और ओघसंज्ञा। ये दस संज्ञायें एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सभी जीवों में होती हैं। ये दस संज्ञाएं भी अनुभव रूप ही हैं। इस प्रकार ज्ञानरूप और अनुभवरूप संज्ञा के आधार पर संज्ञी नहीं कहा जा सकता। जिस संज्ञा के आधार पर संज्ञी शब्द व्यवहृत हुआ है, वह संज्ञा तीन प्रकार की है-दीर्घकालिकी, हेतुवादिकी और दृष्टिवादिकी। जिसमें दीर्घकालिकी संज्ञा हो, वह संज्ञी है। दीर्घकालिकी संज्ञा में भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में घटने वाली घटनाओं पर चिन्तन होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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