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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन १०७ गति की दृष्टि से संसारी जीवों को चार भागों में विभक्त किया गया हैनरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। नरक गति के जीवों के परिणाम और लेश्या अशुभ और अशुभतर होती है। जब पापों का पुंज अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाता है तब जीव नरक में जाकर उत्पन्न होता है। नरक में भयंकर शीत, ताप, क्षुधा, तृषा प्रभृति वेदनाएँ होती हैं। नरकभूमियों में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदि अशुभ होते हैं। उनके शरीर अशुचिकर और बीभत्स होते हैं। उनका शरीर वैक्रिय होता है तथापि उसमें अशुचिता की ही प्रधानता होती है। नरक के जीव मर कर पुनः नरक में पैदा नहीं होते। मनुष्य और तिर्यञ्च ही मर कर नरक में उत्पन्न होते हैं। नारक, मनुष्य और देव को छोड़कर इस विराट विश्व में जितने भी जीव हैं, वे सभी तिर्यञ्च हैं। तिर्यञ्च एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। तिर्यञ्चों में पाँच स्थावर (एकेन्द्रिय), द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय सभी होते हैं। पंचेन्द्रिय में जलचर-स्थलचर-खेचर-उरचर और भुजचर जीवों का समावेश है। तिर्यञ्च जीवों का विस्तार बहुत है। वे अनन्त हैं। मूल आगमों में एक-एक के विविध प्रकार प्रतिपादित हैं। ___ मनुष्यगति नामकर्म के उदय से जीव को मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। आत्मविकास की परिपूर्णता मानव ही कर सकता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने मानवगति की महिमा गाई है। मानवों को आर्य और अनार्य इन दो भागों में विभक्त किया गया है। जो हिंसा आदि दुष्कृत्यों से दूर रहता है वह आर्य है और इसके विपरीत व्यक्ति अनार्य है। आर्यों के भी ऋद्धिप्राप्त आर्य अनऋद्धिप्राप्त आर्य-ये दो प्रकार हैं। ऋद्धिप्राप्त आर्यों में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, विद्याधर और चारण लब्धिधारी मुनि आदि हैं। आर्यों के भी क्षेत्रआर्य, जातिआर्य, कुलआर्य, कर्मआर्य, शिल्पआर्य, भाषाआर्य, ज्ञानआर्य, दर्शनआर्य और चारित्रआर्य ये नौ प्रकार किये गये हैं। इन भेदों का मूल आधार गुण और कर्म हैं। अन्यान्य आधारों पर भी मनुष्यों के भेदों का निरूपण किया गया है। भौतिक सुख और समृद्धि की अपेक्षा मानवगति से देवगति श्रेष्ठ है। देवगति में पुण्य का प्रकर्ष होता है। उसमें लेश्याएं प्रशस्त होती हैं। वैक्रिय शरीर होता है, जिसके कारण वे चाहे जैसा रूप बना लेते हैं। देवों के भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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