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भगवती सूत्र : एक परिशीलन १०५ चार्वाकदर्शन केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। वैशेषिकदर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो को प्रमाण मानता है। सांख्यदर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण माने गये हैं। न्यायदर्शन ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण माने हैं। प्रभाकरमीमांसक ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और अर्थापत्ति ये पांच प्रमाण माने हैं। भाट्टमीमांसा-दर्शन ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अभाव, ये छह प्रमाण माने हैं। बौद्धदर्शन ने प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण माने हैं। जैन दार्शनिक विज्ञों ने प्रमाण के तीन और दो भेद माने हैं। आचार्य सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण माने हैं२९६ तो उमास्वाति२९७ ने, वादी देवसूरि२९८ ने और आचार्य हेमचन्द्र२९९ ने प्रत्यक्ष
और परोक्ष ये दो प्रमाण स्वीकार किये हैं। मगर यह वस्तुतः विवक्षाभेद है। इसमें मौलिक अन्तर नहीं है।
भगवतीसूत्र शतक ५, उद्देशक ४ में प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ये चार प्रकार माने हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण के इन्द्रियप्रत्यक्ष, नोइन्द्रियप्रत्यक्ष-ये दो भेद किये हैं। अनुमान प्रमाण के पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत्-ये तीन प्रकार प्रतिपादित किये हैं। उपमान प्रमाण के भेद-प्रभेद नहीं हैं। आगम प्रमाण के लौकिक और लोकोत्तर-ये दो भेद बताकर लौकिक में भारत, रामायण आदि ग्रन्थों का सूचन किया है तो लोकोत्तर आगम में द्वादशांगी का निरूपण किया है। इस प्रकार प्रस्तुत आगम में प्रमाण के सम्बन्ध में चिन्तन है। यह चिन्तन अनुयोगद्वारसूत्र में और अधिक विस्तार से प्रतिपादित है। ___ भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देशक ४ में जीवों के विविध भेद-प्रभेदों पर चिन्तन किया गया है। जीवविज्ञान जैनदर्शन की अपनी देन है। जितना गहराई से जैनदर्शन ने जीवों के भेद-प्रभेदों पर चिन्तन किया है, उतना सूक्ष्म चिन्तन अन्य पौर्वात्य और पाश्चात्य दार्शनिक नहीं कर सके हैं। वेदों में पृथ्वी देवता, आपो देवता आदि के द्वारा यह कहा गया है कि वे एक-एक हैं, पर जैनदर्शन ने पृथ्वी आदि में अनेक जीव माने हैं, यहाँ तक कि मिट्टी के कण, जल की बूँद और अग्नि की चिनगारी में असंख्य जीव होते हैं। उनका एक शरीर दृश्य नहीं होता, अनेक शरीरों का पिण्ड ही हमें दिखलाई देता है।३००
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