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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन १०३ स्वयंकृत कर्म का वेदन करते हैं या परकृत कर्म का वेदन करते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने बतलाया कि जीव स्वकृत कर्म का ही वेदन करता है, परकृत कर्म का नहीं। जैन आगमसाहित्य का गहराई से पर्यवेक्षण करने पर सहज परिज्ञात होता है कि उसने अद्वैतवादियों की भाँति जगत् को वस्तु अवस्तु अर्थात् माया में विभक्त नहीं किया है अपितु यह प्रतिपादित किया है कि संसार की प्रत्येक वस्तु में स्वभाव और विभाव सन्निहित हैं। वस्तु का स्वभाव वह है जो परनिरपेक्ष हो और विभाव वह है जो परसापेक्ष हो। आत्मा का चैतन्य, ज्ञान, सुख प्रभृति का जो मूल रूप है वह उसका स्वभाव है और अजीव का स्वभाव है जड़ता। आत्मा की मनुष्य, देव आदि गति रूप जो स्थिति है, वह विभाव दशा है। स्वभाव और विभाव दोनों अपने-आप में सत्य हैं। हाँ, तद्विषयक हमारा ज्ञान मिथ्या हो सकता है, लेकिन वह भी तब जब हम स्वभाव को विभाव समझें या विभाव को स्वभाव। तत् में अतत् का ज्ञान होने पर ही ज्ञान में मिथ्यात्व की संभावना रहती है।२९२ विज्ञानवादी बौद्धों का यह मन्तव्य है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही वस्तुग्राहक और साक्षात्कारात्मक है और उसके अतिरिक्त जितना भी ज्ञान है वह अवस्तुग्राहक, भ्रामक, अस्पष्ट और असाक्षात्कारात्मक है। जबकि जैन आगम-साहित्य में प्रत्यक्ष ज्ञान उसे कहा है जो इन्द्रियनिरपेक्ष हो और आत्मसापेक्ष हो तथा साक्षात्कारात्मक हो। परोक्ष उसे कहा है जो ज्ञान इन्द्रिय और मनसापेक्ष हो तथा असाक्षात्कारात्मक हो। प्रत्यक्षज्ञान से ही स्वभाव और विभाग का सही परिज्ञान हो सकता है। जो ज्ञान इन्द्रियसापेक्ष है उससे वस्तु के स्वभाव और विभाव का स्पष्ट और सही परिज्ञान नहीं होता। पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान भ्रम है। विज्ञानवादी बौद्ध परोक्ष ज्ञान को अवस्तुग्राहक होने के कारण भ्रम मानते हैं पर जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता। उसका यह अभिमत है कि विभाव वस्तु का परिणाम है। यह वस्त का एक रूप है। अतः उसके ग्राहकज्ञान को हम भ्रम नहीं कह सकते। ज्ञान-विषयक चिन्तन जैन आगमसाहित्य में ज्ञान के सम्बन्ध में यत्र-तत्र विस्तार से निरूपण किया गया है। ज्ञान के विविध भेद-प्रभेदों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। आगमयुग के पश्चात् जैनदार्शनिक मनीषी भी ज्ञान के सम्बन्ध में चिन्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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