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८६ भगवती सूत्र : एक परिशीलन हैं। वह नित्य व अनित्य है, अवस्थित है और अरूपी है। नित्य का अर्थ तद्भावाव्यय है, गति क्रिया में सहायता देने रूप भाव से कदापि च्युत न होना धर्म का तद्भावाव्यय कहलाता है। अवस्थिति का अर्थ है- जितने असंख्य प्रदेश हैं, उन प्रदेशों का कम और ज्यादा न होना किन्तु हमेशा असंख्यात ही बने रहना। वर्ण, गंध, रस आदि का अभाव होने से धर्मास्तिकाय अरूपी है। धर्मास्तिकाय पूरा एक द्रव्य है। वह जीव आदि के समान पृथक् रूप से नहीं रहता, अपितु अखण्ड द्रव्य के रूप में रहता है एवं सम्पूर्ण लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहाँ पर धर्म द्रव्य का अभाव हो। सम्पूर्ण लोकव्यापी होने से उसे अन्य स्थान पर जाने की आवश्यकता नहीं
होती।
गति का तात्पर्य है-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की क्रिया। धर्मास्तिकाय गति क्रिया में सहायक है। जिस प्रकार मछली स्वयं तैरती है, पर उसकी गति में पानी सहायक होता है। तैरने की शक्ति होने पर भी पानी के अभाव में मछली तैर नहीं सकती। जब मछली तैरना चाहती है तभी उसे पानी की सहायता लेनी पड़ती है। वैसे ही जीव और पुद्गल जब गति करता है, तभी धर्मास्तिकाय या धर्म द्रव्य की सहायता ली जाती है। जीव और पुद्गल में गति और स्थिति ये दोनों क्रियाएँ सहज रूप में होती हैं। इनका स्वभाव न केवल गति करना और न केवल स्थिति करना ही है। किसी समय किसी में गति होती है तो किसी समय किसी में स्थिति होती है। धर्म
और अधर्म को मानना इसलिये आवश्यक है कि वह गति और स्थिति में निमित्त द्रव्य है। उसी से लोक और अलोक का विभाजन होता है। गति
और स्थिति का उपादान कारण जीव और पुद्गल स्वयं है और निमित्तकारण धर्म और अधर्म द्रव्य है।
भगवतीसूत्र शतक १३, उद्देशक ४ में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! गतिसहायक तत्त्व से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने समाधान दिया कि-गौतम ! गति का सहायक नहीं होता तो कौन आता और कौन जाता? शब्द की तरंगें किस प्रकार फैलती हैं ? आँख किस प्रकार खुलती है? कौन मनन करता है? कौन बोलता है? कौन हिलता, डोलता है? यह विश्व अचल ही होता। जो चल हैं उन सब का आलम्बन तत्त्व गतिसहायक तत्त्व ही है।
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