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[ ८७
स्वयंभू स्तोत्र ]
श्रीसुपार्श्व जिन-स्तुति
(छन्द चौपाई) जय सुपार्श्व भगवन् हित भाषा,
क्षणिक भोग की तज अभिलाषा। तप्त शान्त नहिं तृष्णा बन्धती,
स्वस्थ रहे नित मनसा सधती ॥३१॥
जिम जड़ यन्त्र पुरुष से चलता, .
तिम यह देह जीवधृत पलता। अशुचि दुखद दुर्गन्ध कुरूपी,
यामें राग कहा दुख रूपी॥३२॥
यह भवितव्य अटल बलधारी,
होय अशक्त अहं मतिकारी। दो कारण बिन कार्य न राचा,
केवल यल विफल मत साचा ॥३३॥
डरत मृत्यु से तदपि टलत न,
तिन हित चाहे तदपि लभत ना। तदपि मूढ़ भयवश हो कामी,
वृथा जलत हिय हो न अकामी ॥३४॥
सर्व तत्त्व के आप हि ज्ञाता,
मात बालवत शिक्षा दाता। भव्य साधुजन के हो नेता,
मैं भी भक्ति सहित थुति देता ॥३५॥
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