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[ ८१
स्वयंभू स्तोत्र ]
श्रीअभिनन्दननाथजिन-स्तुति
(छन्द स्रग्विनी) आत्मगुण वृद्धि से नाथ अभिनन्दना। धर अहिंसा वधू, शान्ति सेवित घना॥ आत्ममय ध्यान की, सिद्धि के कारणे। होय निर्ग्रन्थ पर, दोय विधि टारने ॥१६॥
तन अचेतन यही, और तिस योग तें। प्राप्त संबंध में, आपपन मानते ॥ जो क्षणिक वस्तु है, थिरपना देखते। नाश जग देख प्रभु, तत्त्व उपदेशते ॥१७॥
क्षतु तृषा रोग प्रतिकार बहु ठानते। अक्ष सुख भोग कर तृप्ति नहिं मानते ॥ थिर नहीं जीव तन, हित न हो दौड़ना। यह जगत रूप भगवान विज्ञापना ॥१८॥
लोलुपी भोग जन, नहिं अनीती करे। दोष को देख जग, भय सदा उर धरे। है विषय मग्नता, दोउ भव हानिकर। सुज्ञ क्यों लीन हो, आप मत जानकर ॥१९॥
है विषयलीनता, प्राणि को ताप कर। है तृषा वृद्धिकर, हो न सुख से वसर॥ हे प्रभो ! लोकहित, आप मत मान के। साधु जब शर्ण ले, आप गुरु मान के॥२०॥
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