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एकीभाव स्तोत्र ]
[ ६९ जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै। अनवधि सुख की सार भक्ति-कुम्भी नहिं लाधै। सो शिव-वांछक पुरुष मोक्ष-पट केम उधारै। मोह-मुहर दिढ़ करी मोक्ष-मन्दिर के द्वारे ॥१३॥
शिवपुर-केरो पन्थ पाप-तमसों अति छायो। दुःख-सरूप बहु कूप-खाड़सों विकट बतायो । स्वामी, सुखसों तहाँ कौन जन मारग लागें। प्रभु-प्रवचन-मणिदीप जौन के आगैं-आगें ॥१४॥
कर्म-पटल भू माहिं दबी आतम-निधि भारी। देखत अतिसुख होय विमुखजन नाहिं उधारी॥ तुम सेवक ततकाल ताहि निह● करि धारै । थुति-कुदालसों खोद बन्ध-भू कठिन बिदारै ॥१५॥
स्यादवाद-गिरि उपज मोक्ष-सागर लों धाई। तुम चरणाम्बुज-परस भक्ति-गंगा सुखदाई। मो चित निर्मल थयो न्हौन-रुचि-पूरव तामैं। अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामैं ॥१६॥
तुम शिव सुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो। मैं भगवान समान, भाव यों बरतै मेरो॥ यदपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावै। तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै ।।१७॥
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