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एकीभाव स्तोत्र ]
[ ६७ भज तज सुखपद बसे काममद सुभट सँहारे। जो तुमको निरखंत, सदा प्रिय दास तिहारे । तुम वचनामृत पान भक्ति-अंजुलि सों पीवै। तिन्हें भयानक क्रूर रोग-रिपु कैसे छीवै ॥८॥
मानथम्भ पाषान आन पाषान पटन्तर। ऐसे और अनेक रतन दीखै जग-अन्तर ॥ देखत दृष्टि-प्रमान मान-मद तुरत मिटावै । जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्यों कर पावै॥९॥
प्रभुतन-पर्वत-परस पवन उसमें निवहै है। तासों ततछिन सकल रोग-रज बाहिर है है। जाके ध्यानाहूत बसो उर-अम्बुज माहीं। कौन जगत उपकार करन समरथ सो नाहीं॥१०॥
जनम-जनम के दुःख सहे सब ते तुम जानो। याद किये मुझ हिए लगैं आयुध से मानो। तुम दयाल, जगपाल, स्वामि, मैं शरन गही है। जो कुछ करनो होय करो परमान वही है ॥११॥
मरन-समय तुम नाम मन्त्र जीवक” पायो। पापाचारी स्वान प्रान तज अमर कहायो॥ जो मणिमाला लेय जपैं तुम नाम निरन्तर। इन्द्र सम्पदा लहै कान संशय इस अन्तर ॥१२॥
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