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कल्याणमन्दिर स्तोत्र ]
[ ५१
क्रोध
शत्रु को पूर्व शमन कर, शान्त बनायो मन-आगार । कर्म-चोर जीते फिर किस विध, हे प्रभु अचरज अपरम्पार ॥ लेकिन मानव अपनी आँखों, देखहु यह पटतर संसार । क्यों न जला देता वन-उपवन, हिम-सा शीतल विकट तुषार ॥१३ ॥
शुद्धस्वरूप अमल अविनाशी, परमातम सम ध्यावहिं तोय। निजमन कमल-कोष मधि ढूंढ़हिं, सदा साधु तजि मिथ्या-मोह ॥ अतिपवित्र निर्मल सु-कांति युत, कमलकर्णिका बिन नहिं और । निपजत कमलबीज उसमें ही, सब जग जानहिं और न ठौर ॥१४ ॥
जिस कुधातु से सोना बनता, तीव्र अग्नि का पाकर ताव । शुद्ध स्वर्ण हो जाता जैसे, छोड़ उपलता पूर्व विभाव ॥ वैसे ही प्रभु के सु- ध्यान से, वह परिणति आ जाती है। जिसके द्वारा देह त्याग, परमात्मदशा पा जाती है ॥१५ ॥
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जिस तन से भवि चिन्तन करते, उस तन को करते क्यों नष्ट । अथवा ऐसा ही स्वरूप है, है दृष्टान्त एक उत्कृष्ट ॥ जैसे बीचवान बन सज्जन, बिना किए ही कुछ आग्रह | झगड़े की जड़ प्रथम हटाकर, शांत किया करते विग्रह ॥१६ ॥
हे जिनेन्द्र ! तुम में अभेद रख, योगीजन निज को ध्याते । तव प्रभाव से तज विभाव वे, तेरे ही सम हो जाते ॥ केवल जल को दृढ़-श्रद्धा से, मानत है जो सुधासमान । क्या न हंटाता विष विकार वह, निश्चय से करने पर पान ॥१७॥
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