SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याणमन्दिर स्तोत्र ] [ ४९ मन-मन्दिर में वास करहिं जब, अश्वसेन -वामा-नन्दन । ढीले पड़ जाते कर्मों के, क्षण भर में दृढ़तर बन्धन ॥ चन्दन के विटपों पर लिपटे, हों काले विकराल भुजङ्ग । वन- मयूर के आते ही ज्यों, होते उनके शिथिलित अङ्ग ॥८ ॥ बहु विपदाएँ प्रबल वेग से, करें सामना यदि भरपूर । प्रभु - दर्शन से निमिषमात्र में, हो जातीं वे चकनाचूर ॥ जैसे गो-पालक दिखते ही, पशु-कुल को तज देते चोर । भयाकुलित हो करके भागें, सहसा समझ हुआ अब भोर ॥९ ॥ भक्त आपके भव-पयोधि से, तिर जाते तुमको उर धार । फिर कैसे कहलाते जिनवर, तुम भक्तों की दृढ़ पतवार ॥ वह ऐसे, जैसी तिरती है, चर्म- मसक जल के ऊपर । भीतर उसमें भरी वायु का, ही केवल यह विभो ! असर ॥१० ॥ जिसने हरिहरादि देवों का, खोया यश-गौरव-सम्मान । उस मन्थन का हे प्रभु! तुमने, क्षण में मेट दिया अभिमान ॥ सच है जिस जल से पल-भर में, दावानल हो जाता शान्त। क्यों न जला देता उस जल को ? बडवानल होकर अश्रांत ॥ ११ ॥ छोटी-सी मन की कुटिया में, हे प्रभु! तेरा ज्ञान अपार । धार उसे कैसे जा सकते, भविजन भव-सागर के पार ॥ पर लघुता से वे तिर जाते, दीर्घभार से डूबत नाहिं । प्रभु की महिमा ही अचिन्त्य है, जिसे न कवि कह सकैं बनाहिं ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy