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कल्याणमन्दिर स्तोत्र ]
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मन-मन्दिर में वास करहिं जब, अश्वसेन -वामा-नन्दन । ढीले पड़ जाते कर्मों के, क्षण भर में दृढ़तर बन्धन ॥ चन्दन के विटपों पर लिपटे, हों काले विकराल भुजङ्ग । वन- मयूर के आते ही ज्यों, होते उनके शिथिलित अङ्ग ॥८ ॥
बहु विपदाएँ प्रबल वेग से, करें सामना यदि भरपूर । प्रभु - दर्शन से निमिषमात्र में, हो जातीं वे चकनाचूर ॥ जैसे गो-पालक दिखते ही, पशु-कुल को तज देते चोर । भयाकुलित हो करके भागें, सहसा समझ हुआ अब भोर ॥९ ॥
भक्त आपके भव-पयोधि से, तिर जाते तुमको उर धार । फिर कैसे कहलाते जिनवर, तुम भक्तों की दृढ़ पतवार ॥ वह ऐसे, जैसी तिरती है, चर्म- मसक जल के ऊपर । भीतर उसमें भरी वायु का, ही केवल यह विभो ! असर ॥१० ॥
जिसने हरिहरादि देवों का, खोया यश-गौरव-सम्मान । उस मन्थन का हे प्रभु! तुमने, क्षण में मेट दिया अभिमान ॥ सच है जिस जल से पल-भर में, दावानल हो जाता शान्त। क्यों न जला देता उस जल को ? बडवानल होकर अश्रांत ॥ ११ ॥
छोटी-सी मन की कुटिया में, हे प्रभु! तेरा ज्ञान अपार । धार उसे कैसे जा सकते, भविजन भव-सागर के पार ॥ पर लघुता से वे तिर जाते, दीर्घभार से डूबत नाहिं । प्रभु की महिमा ही अचिन्त्य है, जिसे न कवि कह सकैं बनाहिं ॥१२॥
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