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कल्याणमन्दिर स्तोत्र]
[ ४७ अगम अथाह सुखद शुभ सुन्दर, सत्स्वरूप तेरा अखिलेश!। क्यों करि कह सकता है मुझसा, मन्दबुद्धि मूरख करुणेश!। सूर्योदय होने पर जिसको, दिखता निज का गात नहीं। दिवाकीर्ति क्या कथन करेगा, मार्तण्ड का नाथ! कहीं?॥३ ।।
यद्यपि अनुभव करता है नर, मोहनीय-विधि के क्षय से। तो भी गिन न सबै गुण तुव सब, मोहेतर-कर्मोदय से॥ प्रलयकाल में जब जलनिधि का, बह जाता है सब पानी। रत्नराशि दिखने पर भी क्या, गिन सकता कोई ज्ञानी ? ।।४।।
तुम अतिसुन्दर शुद्ध अपरिमित, गुणरत्नों की खानिस्वरूप। वचननि करि कहने को उमगा, अल्पबुद्धि मैं तेरा रूप॥ यथा मन्दमति लघुशिशु अपने, दोऊ कर को कहै पसार। जल-निधि को देखहु रे मानव, है इसका इतना आकार ॥५॥
हे प्रभु ! तेरे अनुपम सब गुण, मुनिजन कहने में असमर्थ। मुझसा मूरख औ अबोध क्या, कहने को हो सके समर्थ। पुनरपि भक्तिभाव से प्रेरित, प्रभु-स्तुति को बिना विचार। करता हूँ, पंछी ज्यों बोलत, निश्चित बोली के अनुसार ॥६॥
है अचिन्त्य महिमा स्तुति की, वह तो रहे आपकी दूर। जब कि बचाता भव-दु:खों से, मात्र आपका नाम जरूर॥ ग्रीष्म कु-ऋतु के तीव्र ताप से, पीड़ित पन्थी हुये अधीर। पद्म-सरोवर दूर रहे पर, तोषित करता सरस-समीर ॥७॥
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