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कल्याणमन्दिर स्तोत्र नहीं दीनता से वर मांगू प्रभो आप की स्तुति करके। वीतराग तुम परम उपेक्षक ज्ञाता सभी चराचर के ॥ वृक्ष स्वयं ही छाया देता उसे मांगना बिलकुल व्यर्थ । ज्यों स्तुति सब कुछ देने में बिन मांगे ही पूर्ण समर्थ ॥३८॥
मैं कुछ मांगू प्रभो आप से, यही आपका यदि अनुरोध।
और आप देना ही चाहें तो मुझ को भी नहीं विरोध । मैं तो केवल यही मांगता सदा मिले तुम पद में भक्ति। अपने लोगों के पालन में होती है सबकी आसक्ति ॥३९॥
भक्ति करे कैसे भी चाहे नहीं जायगी वह खाली। देती इच्छित फल है सारे बात नहीं टलती टाली॥ तुम पद में यदि प्रभो भक्ति नुति यह विशेषता है उसकी। 'धन जय' यश मिलते सब उसको अतुल शक्ति होती वश की ॥४०॥
पद्यानुवाद अनुपम करुणा की सु-मूर्ति शुभ, शिव मन्दिर अघनाशक मूल। भयाकुलित व्याकुल मानव के, अभयप्रदाता अति-अनुकूल॥ बिन कारन भवि जीवन तारन, भवसमुद्र में यान-समान। ऐसे पद्म-प्रभु पारस, के पद अयूँ मैं नित अम्लान ॥१॥
जिसकी अनुपम गुणगरिमा का, अम्बुराशि सा है विस्तार। यश-सौरभ सु-ज्ञान आदि का, सुरगुरु भी नहिं पाता पार॥ हठी कमठ शठ के मदमर्दन, को जो धूमकेतु-सा शूर । अति आश्चर्य कि स्तुति करता, उसी तीर्थपति की भरपूर ॥२॥
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