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विषापहार स्तोत्र ]
[ ४३ तीन लोकमय पुर अधिनायक परम ज्योतिमय ज्ञान सुपूर। परम अनन्त चतुष्टय धारक पाप-पुण्य से हो अति दूर ॥ परम पुण्य निमित्त आप हो तीन जगत से वंचित हो। नहीं किसी की करो वन्दना सब जग से अभिवंदित हो ॥३३॥
शब्द रहित हो, स्पर्श रहित हो रूप गन्ध विरहित हो आप। मधुरादिक रस रहित आप हो तो भी इनके ज्ञाता आप ॥ तीन लोक के आप प्रमाता किन्तु सभी के आप अमेय। याद न करते कभी किसी को मेरे एक आप ही ध्येय ॥३४॥
थाह नहीं है प्रभो! आपकी मन से भी हो आप अलंघ्य। निष्किंचित हो तो भी पूरो याचक जन की आस असंख्य ।। पाया जग का पार आपने नहीं आपका मिलता पार। हे जिनपति मैं चरण शरण हूँ मेरे तुम हो ह्रदयाधार ॥३५ ॥
तीन लोक के दीक्षा गुरु हो प्रभु! आपको सदा प्रणाम। वर्धमान कहलाकर भी हो सदा समुन्नत गुण गुणधाम। ज्यों सुमेरु है सदा यहां पर सदा एक-सा ही रहता। गंड शैल, फिर अदि मेरु फिर ऐसे क्रम से नहीं बढ़ता ॥३६॥
स्वयं प्रकाशित प्रभो! आप हो नहिं आवश्यक दिन या रात। नहीं किसी से आप बाध्य हो बाधक भी हो नहिं जिननाथ। नहिं हलकापन या भारीपन सदा प्रभो हो एक स्वरूप। काल कला से रहित आप हो नमँ चरण में हे जिन भूप ॥३७॥
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