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विषापहार स्तोत्र ]
[ ३९ पिता पुत्र कुल आदि हेतु से करे आपका जो गुण गान। प्रभो स्वयं अति महामहिम हो उस कारण तो है अवगान॥ पा सुवर्ण अनमोल हाथ में तजे समझ उसको पाषाण। नहीं धनी बनता ले उसको और ढूँढता उसकी खान ॥२३॥
सुर-असुरों को और सभी को जीत विजय का पीटा ढोल। उससे मिला लाभ क्या उसको तुमने उसकी खोली पोल॥ लड़ा आपसे मोह महाभट हार गया झट बेचारा। अधिक बली से जो लड़ता वह स्वयं नष्ट होता सारा ॥२४॥
केवल एक आपने प्रभुवर! मार्ग मुक्ति का दिखलाया। औरों ने चारों गतियों में सदा भटकना सिखलाया। सब कुछ मैंने देख लिया प्रभु तुमने इस मद में आकर। नहीं चतुर्गति के दुख देखे कहाँ रहा वह मद तुम पर ॥२५॥
सूर्य चन्द्र के केतु राहु अरि, सलिल अग्नि का अरि प्रत्यक्ष। है समुद्र के कल्पपवन अरि भोगादिक का नाश समक्ष । तुमसे अन्य प्रभो ! हैं जितने सभी शत्रुता परम संयुक्त । सबके पीछे लगे विपक्षी केवल आप शत्रु से मुक्त ॥२६॥
बिन जाने भी तुम पद नमना है उत्तम फल का कर्ता। देव समझ नमना कुदेव को नहीं प्रभो है अघ हर्ता । कॉच समझ पन्ना मणि लेना जग में महा लाभकारी। पन्ना समझ कॉच को लेना जैसे महा हानिकारी॥२७॥
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