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विषापहार स्तोत्र ]
[ ३७ नहीं किसी से राग आपके प्रभु उपेक्षक सीमातीत। तो भी दे उपदेश सुखों का जग-प्रियता सारी ली क्रीत ।। लोकप्रिय भी वीतराग भी यह कैसी विपरीत कथा। मर्म न इसका समझ सका मैं समझा, मेटो नाथ व्यथा ॥१८॥
आप अकिंचन किन्तु उच्च से जो उत्तम फल मिलता है। वह समृद्ध धनिकादिक से भी कभी नहीं मिल सकता है। नीच अब्धि से नदी न निकलै काम नहीं आता पानी। उच्च शैल से नदियाँ निकलें मीठा जल पीवें प्राणी ॥१९॥
तीन लोक संवाहित सुरपति, रहता खड़ा दंड कर धार । चोबदार ज्यों तेरे आगे समवसरण मन्दिर के द्वार ॥ प्रातिहार्य यह हुआ उसी के किन्तु आपके कहलाता। कर्म योग उसके से अथवा प्रभो आपके बन जाता ॥२०॥
धनी और निर्धन ही देखे, निर्धन और न लक्ष्मीवंत। नहीं दूसरा तुम सम श्रीपति करे दीन को जो श्रीमन्त॥ तम में देखै प्रकाश स्थित जैसे नहिं तम में स्थित को। केवल ज्योति प्रकाश जिनेश्वर! दो मुझ दीन तमोगत को॥२१॥
आत्मा जब प्रत्यक्ष लखे निज वृद्धि श्वास निमेषों से। तो भी उसके अनुभव माँही मूढ़ हुआ, निज दोषों से॥ आत्मा के अनुभव से विरहित, गुण पर्यय युत ज्ञेय सभी। देख सकेगा कैसे फिर वह, सारा जग फिर नहीं कभी ॥२२॥
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