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विषापहार स्तोत्र ]
[ ३३ है अगाधता ख्यात अब्धि की किन्तु अब्धि तक ही सीमित। है ऊँचापन ख्यात मेरु का पर वह उस तक परिसीमित ।। नभ भू की भी पृथुता सीमित तेरे ये सब सीमा मुक्त। भुवन और भुवनांतर मांही उससे कोई नहिं उन्मुक्त ॥८॥
परम तत्त्व अनवस्था तेरा नित्यत्वादिक नहिं एकान्त। तुमने पुनरागमन न बताया आगम सर्वोदयी निरन्त ।। दे अदृष्ट में ध्यान आपने मारी दृष्ट सुखों के लात। यों प्रत्यक्ष विरोध दीखता समीचीन तो भी सब बात ॥९॥
वास्तव में तो किया आपने स्मर को भस्म, नहीं हर ने। हर यदि वश कर लेता तो क्यों उमा रक्त है क्या करने? वृन्दा में आसक्त विष्णु भी स्मरदाहक नहिं हो सकते। इनही के संग में नित सोते आप भिन्न जागृत रहते ॥१०॥
पर को धार्मिक, पापी, कहने से कोई बड़ा नहीं होता। दोष कथन या यशोगान से भी कोई बड़ा नहीं होता। ज्यों समुद्र निज महिमा से ही गुण अगाधतादिक से युक्त। लघु तालाबों की निन्दा से नहीं आप त्यों गुण संयुक्त ॥११॥
ले जाती है कर्म वर्गणा इस प्राणी को भव भव में। प्राणी भी उसको ले जाता साथ बांधता क्षण क्षण में। नाव खिवैया सम समुद्र में आपस में ज्यों सहयोगी। जीव कर्म त्यों कहा आपने, आप कर्म विरहित योगी ॥१२॥
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