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कुन्दकुन्द शतक ]
[३८५ इन्द्रिसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है।। है बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है।९० ॥ शुभ-अशुभ रचना वचन वा रागादिभाव निवारि के। जो करें आतम ध्यान नर उनके नियम से नियम है ॥९१ ॥ सद्ज्ञान-दर्शन-चरित ही है 'नियम' जानो नियम से। विपरीत का परिहार होता 'सार' इस शुभ वचन से॥१२॥ जैन शासन में कहा है मार्ग एवं मार्गफल। है मार्ग मोक्ष-उपाय एवं मोक्ष ही है मार्गफल॥१३॥ हैं जीव नाना कर्म नाना लब्धि नानाविध कही। अतएव वर्जित वाद है निज-पर समय के साथ भी॥१४॥ ज्यों निधि पाकर निज वतन में गुप्त रह जन भोगते। त्यों ज्ञानिजन भी ज्ञाननिधि परसङ्ग तज के भोगते ॥१५॥ यदि कोई ईर्ष्याभाव से निन्दा करे जिनमार्ग की। छोड़ो न भक्ति वचन सुन इस वीतरागी मार्ग की॥१६॥ जो थाप निज को मुक्तिपथ भक्ती निवृत्ती की करें। वे जीव निज असहाय गुण सम्पन्न आतम को वरें।९७॥ मुक्तिगत नर श्रेष्ठ की भक्ति करें गुणभेद से। वह परमभक्ति कही है जिनसूत्र में व्यवहार से॥१८॥ द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरंहत को। वे जानते निज आतमा दृगमोह उनका नाश हो॥१९॥ सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी। सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी ॥१०॥ है ज्ञान दर्शन शुद्धता निज शुद्धता श्रामण्य है। हो शुद्ध को निर्वाण शत-शत बार उनको नमन है॥१०१ ।।
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