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बारह भावना ]
[३७३ मोह भाव की ममता टारे, पर परिणति खोते। करे मोख का यतन निरास्रव ज्ञानी जन होते ॥१७॥
संवर भावना ज्यों मोरी में डाट लगावे, तब जल रुक जाता। त्यों आस्रव को रोके संवर क्यों नहिं मन लाता॥ पञ्च महाव्रत समिति गुप्तिकर, वचन काय मन को।। दश विधि धर्म परीषह बाइस, बारह भावन को॥१८॥ यह सब भाव सतावन मिलकर, आस्रव को खोते। सुपन दशा से जागो चेतन, कहाँ पड़े सोते ।। भाव शुभाशुभ रहित शुद्धि, भावन संवर पावै। डाँट लगत यह नाव पड़ी, मंझधार पार जावै ॥१९॥
निर्जरा भावना ज्यों सरवर जल रूका सूखता, तपन पड़े भारी। संवर रोके कर्म निर्जरा, सोखनहारी। उदय भोग सविपाक समय, पक जाय आम डाली। दूजी है अविपाक पकावें, पाल विषै माली ॥२०॥ पहली सबके होय नहीं कुछ, सरे काम तेरा। दूजी करे जु उद्यम करके, मिटे जगत फेरा॥ संवर सहित करो तप प्रानी, मिले मुक्ति राणी। इस दुलहिन की यही सहेली, जाने सब ज्ञानी ॥२१ ।।
लोक भावना लोक अलोक अकाश माँहि थिर, निराधार जानो। पुरूष रूप कर कटी भये षट् द्रव्यन सों मानो। इसका कोई न करता हरता, अमिट अनादी है। जीव रू पुद्गल नाचे यामैं, कर्म उपाधी है ॥२२॥ पाप पुण्य सों जीव जगत में, नित सुख दुःख भरता। अपनी करनी आप भरै सिर औरन के धरता।
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