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बारह भावना
[३६३ जा तन में नित जिय बसै, सो न अपनो होय। तो प्रतक्ष जो पर दरब, कैसे अपनो होय ॥५॥ सुष्ठ सुगन्धित द्रव्य को, करे अशुचि जो काय। हाड़ माँस मल रुधिर थल, सो किम शुद्ध कहाय ॥६॥ मन-वच-तन शुभ अशुभ ये, योग आस्रव द्वार। करत बन्ध विधि जीव को, महा कुटिल दुःखकार ॥७॥ ज्ञान विराग विचार के, गोपै मन वच काय। थिर है अपने आप में, सो संवर सुखदाय ॥८॥ पाँचों इन्द्रिय दमन कर, समिति गुप्ति व्रत धार। इच्छा बिन तप आदरै, सो निर्जरा निहार ॥९॥ पुद्गल धर्म अधर्म जिय, काल जिते नभ माहि। नराकार सो लोक में, विधि वश जिव दु:ख पाँहि ॥१०॥ सबहि सुलभ या जगत में, सरु परपद धन धान। दुर्लभ सम्यग्बोधि इक, जो है शिव सोपान ॥११॥ जप तप संयम शील पुनि, त्याग धर्म व्यवहार। 'दीप' रमण चिद्रूप निज, निश्चय वृष सुखकार ॥१२॥
कविवर भैय्या भगवतीदास पंच परम पद वंदना करों, मन वच भाव सहित उर धरों। बारह भावन पावन जान, भाऊँ आतम गुण पहिचान ॥१॥ थिर नहिं दीखहिं नैननि वस्त, देहादिक अरु रूप समस्त। थिर बिन नेह कौन सों करों, अथिर देख ममता परिहरौं ॥२॥ असरन तोहि सरन नहिं कोय, तीन लोक महिं दृग धर जोय। कोउ न तेरो राखनहार, कर्मन बस चेतन निरधार ॥३॥ अरु संसार भावना एहु, पर द्रव्यन सों कीजे नेह। तू चेतन वे जड़ सरवंग, तातें तजहु परायो संग ॥४॥
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