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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह जितने जग संजोगी भाव, ते सब जिय सों भिन्न सुभाव। नित संगी तन ही पर सोय, पुत्र सुजन पर क्यों नहिं होय ।।५।। अशुचि अस्थि पिंजर तन यह, चाम वसन बेढ्या घिन गेह। चेतन राचि तहाँ नित रहे, सो बिन ज्ञान गिलानि न गहै ॥६॥ मिथ्या अविरत जोग कषाय, ये आस्त्रव कारन समुदाय। आस्रव कर्म बंध को हेत, बंध चतुरगति के दुख देत ॥७॥ समिति गुप्ति अनुपेहा धर्म, सहन परीषह संजम पर्म। ये संवर कारन निर्दोष, संवर करे जीव को मोष ॥८॥ तप बल पूर्व कर्म खिर जाहिं, नये ज्ञान वश आवें नाहिं। यही निर्जरा सुख दातार, भव कारन तारन निरधार ॥९॥ स्वयं सिद्ध त्रिभुवन थित जान, कटि कर धरै पुरुष संठान। भ्रमत अनादि आतमा जहाँ, समकित बिन शिव होय न तहाँ॥१०॥ दुर्लभधर्म दशाङ्ग पवित्त, सुखदायक सहगामी नित्त। दुर्गति परत यही कर गहै, देय सुरग शिव थानक यहै ॥११॥ सुलभ जीव को सब सुख सदा, नौ ग्रीवक ताँई संपदा। बोध रतन दुर्लभ संसार, भव दरिद्र दुख मेटन हार ॥१२॥
कविवर पण्डित दीपचन्द द्रव्यदृष्टि से वस्तु थिर, पर्यय अथिर निहार। तासे योग वियोग में, हर्ष विषाद निवार ॥१॥ शरण न जिय को जगत में, सुर नर खगपति सार। निश्चय शुद्धातम शरण, परमेष्ठी व्यवहार ॥२॥ जन्म जरागद मृत्यु भय, पुनि जहँ विषय-कषाय। होवे सुख दुःख जीव को, सो संसार कहाय॥३॥ पाप-पुण्य फल दुःख सुख, सम्पत विपत सदीव।। जन्म-जरा-मृतु आदि सब, सहै अकेला जीव ॥४॥
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