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अध्यात्म पंचासिका ]
[३०७ चारौं नाही सिद्ध कै, तू चारों के माहिं। चार विनासै मोक्ष है, और बात कछु नाहि ॥२४॥ ज्ञाता जीवन मुक्त है, एक देश यह बात। ध्यान अग्नि-विन कर्म-वन, जलैन शिव किम जात ॥२५॥ दर्पण काई अथिर जल, मुख दीसै नहिं कोय। मन निर्मल थिर बिन भये, आप दरश क्यों होय ॥२६ ।। आदिनाथ केवल लह्यो, सहस वर्ष तप ठान। सोई पायो भरतजी, एक मुहूरत ज्ञान ॥२७॥ राग रोष संकल्प है, नय के भेद विकल्प। रोष भाव मिट जाय जब, तब सुख होय अनल्प॥२८॥ राग विराग दु भेदसों, दोय रूप परिणाम। रागी जग के भूमिया, वैरागी शिवधाम ॥२९॥ एक भाव है हिरण के, भूख लगे तृण खाय। एक भाव मंजार के, जीव खाय न अघाय॥३० ।। विविध भाव के जीव बहु, दीसत हैं जग माहिं। एक कछू चाहै नहीं, एक त कछु नाहिं ॥३१॥ जगत अनादि अनन्त है, मुक्ति अनादि अनन्त। जीव अनादि अनन्त है, कर्म दुविध सुन सन्त ॥३२॥ सबके कर्म अनादि के, कर्म भव्य को अन्त। कर्म अनन्त अभव्य के , तीनकाल भटकन्त ॥३३॥ फरश बरन रस गन्ध स्वर, पांचों जानें कोय। बोलैं डोलैं कौन है, जो पूछ है सोय ॥३४॥ जो जानैं सो जीव है, जो मानै सो जीव। जो देखै सो जीव है, जीवै जीव सदीव ॥३५ ॥
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