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छहढाला
[२७३ ऊरध गति को बीज, धर्म न जो मन आचरैं। मानुष योनि लहीज, कूप पड़े कर दीप ले ॥७॥ ऋषिवर के सुन बैन, सार मनुज सब योनि में। ज्यों मुख ऊपर नैन, भानु दिपै आकाश में ॥८॥
दूसरी ढाल रे जिय यह नरभव पाया, कुल जाति विमल तू आया। जो जैनधर्म नहिं धारा, सब लाभ विषयसंग हारा ॥१॥ लखि बात हृदय गह लीजे, जिनकथित धर्म नित कीजे। भव दुख सागर को वरिये, सुख से नवका ज्यों तरिये ॥२॥ ले सुधि न विषय रस भरिया, भ्रम मोह ने मोहित करिया। विधि ने जब दई घुमरिया,तब नरक भूमि तू परिया ॥३॥ अब नर कर धर्म अगाऊ, जब लों धन यौवन चाऊ। जब लों नहिं रोग सतावै, तोहि काल न आवन पावै ।।४ ॥ ऐश्वर्य रु आश्रित नैना, जब लों तेरी दृष्टि फिरै ना। जब लों तेरी दृष्टि सवाई, कर धर्म अगाऊ भाई ॥५॥ ओस बिन्दु त्यों योवन जैहै, कर धर्म जरा पुन यै है। ज्यों बूढो बैल थकै है, कछु कारज कर न सके है॥६॥
औ छिन संयोग वियोगा, छिन जीवन छिन मृत्यु रोगा। छिन में धन यौवन जावै, किसविधि जग में सुख पावै ॥७॥ अंबर धन जीवन येहा, गज-करण चपल धन देहा। तन दर्पण छाया जानो, यह बात सभी उर आनौ ॥८॥
तीसरी ढाल अ: यम ले नित आयु, क्यों न धर्म सुनीजै। नयन तिमिर नित हीन, आसन यौवन छीजै॥
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