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भक्तामर स्तोत्र ]
[ १७ धूम न बत्ती तेल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक। गिरि के शिखर उड़ाने वाली, बुझा न सकती मारुत झोक। तिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिनरात। ऐसे अनुपम आप दीप हैं, स्व-पर-प्रकाशक जग विख्यात ॥१६॥
अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल। एक साथ बतलानेवाला, तीन लोक का ज्ञान विमल ॥ रुकता कभी प्रभाव न जिसका, बादल की आकार के ओट। ऐसी गौरव-गरिमा वाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट ॥१७॥
मोह महातम दलनेवाला, सदा उदित रहने वाला। राहु न बादल से दबता पर, सदा स्वच्छ रहने वाला। विश्वप्रकाशक मुख सरोज तव, अधिक कांतिमय शांतिस्वरूप। है अपूर्व जग का शशि-मंडल, जगत शिरोमणि शिव का भूप॥१८॥
नाथ आपका मुख जब करता, अंधकार का सत्यानाश। तब दिन में रवि और रात्रि में, चंद्र-बिम्ब का विफल प्रयास ॥ धान्य-खेत जब धरती तल के, पके हुए हों अति अभिराम। शोर मचाते जल को लादे, हुए घनों से तब क्या काम ॥१९॥
जैसा शोभित होता प्रभु का, स्व-पर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान। हरिहरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान॥ अति ज्यातिर्मय महारतन का, जो महत्व देखा जाता। क्या वह किरणाकुलित काँच में, अरे कभी लेखा जाता ॥२०॥
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