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जिनचतुर्विंशतिका ]
[२६३ जिनवर ! जिस श्रद्धालु जीव ने, किया आपका पावन दर्श। उसने ज्ञानी व्रती पात्र के, लिए दान दे लिया सहर्ष । कठिन तपस्या संचय कर ली, की पूजाएँ भी अवदात। एवं निर्मल गुणों सहित ही पाये शील व्रत भी सात ॥६॥
त्रिभुवन-चूड़ामणे! आप जग-अहि-विष-हारक मणि निर्दोष । जो तव गुण से कर्ण हदय को, भूषित कर करता सन्तोष । वही बुद्धि पारंगत प्रभु वह, शास्त्र सिन्धु का अन्तिम पार । वह ही है गुण-रल विभूषित, वही प्रशंसापात्र उदार ॥७॥
सुर समूह के द्वारा चालित, उज्ज्वल-शशि सम ही छविमान।
औ अनुरक्त-मुक्ति-श्री युवती के कटाक्ष से शोभावान ।। उन्नत चवरों द्वारा ढोले जाने वाले हे जिनराज। हैं जयवन्त आप ही जग में, मान रहा यह विज्ञ समाज ॥८॥
जो कि छत्र, चामर,अशोक, भामण्डल दिव्यध्वनि अभिराम। पुष्पवृष्टि, सिंहासन, दुन्दुभि, प्रतिहार्य से शोभा-धाम । सुर-नर-सभा-कमलिनी के रवि,एवं जग के सभी नरेन्द्र। जिन्हें नवाते शीश, करें हम सबकी रक्षा वही जिनेन्द्र ॥९॥
देव! आपकी शुभ कल्याणक विधि में करते नृत्य ललाम। सुर-गज के दन्तों पर नर्तित, सुर-वधुओं से शोभाधाम। त्रिभुवन-यात्रा-उत्सव-ध्वनि से, मुदित सुरों से और ज्वलन्त ।। सुर सुन्दरियों द्वारा सुन्दर यह देवागम है जयवन्त ॥१०॥
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