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जिनचतुर्विंशतिका ]
[२६१ पद्यानुवाद जो अभीष्टप्रद तथा कल्प-दल के,समान सत्कान्ति-निकेत। जिनवर के पद-युग का दर्शन,प्रात: करता भक्ति समेत॥ वह होता श्री-सौध,मही का कुल-गृह, यश का लीलागार। सरस्वती का सद्य विजयश्री का आलय उत्सव-भण्डार ॥१॥
देव! आपका तन प्रशान्त है, वचन कर्ण-प्रिय और आचार। अनायास ही करता रहता, सभी प्राणियों का उपकार॥ अत: आप ही जग-मरुथल के सघन वृक्ष हैं छायादार। यही हेतु जो विज्ञ आपका आश्रय लेते बारम्बार ॥२॥
नाथ!आप हैं त्रिजग नयन के, कुमुद-विपिन हित चन्द्र अनूप। सुधा प्रवाहित करती है तव, शुभ्र चन्द्रिका कान्ति-स्वरूप॥ अत: आपका दर्शन कर मैं,आज गर्भ कूप से हुआ प्रसूत। आज दृष्टि हो गई प्रगट औ! आज हुआ है जीवन पूत ॥३॥
इन्द्र-किरीटों के रत्नों की, दीपावलि से सघन महान्। सिंहासन के मणिमय दीपों का, यह विभव कहाँ श्रीमान्?
और आपकी यह निस्पृहता,कहाँ अत: हे त्रिभुवन-ईश! आप सदृश का चरित तर्क का, विषय नहीं है हे जगदीश ॥४॥
प्रभो! आपने सुरपति-सेवित, राज्य दिया तृण जैसा छोड़। अनायास ही त्रिभुवन विजयी, मोह-मल्ल को दिया मरोड़॥ लीन किया निज ज्ञान-मुकुर के भीतर लोकालोक वितान। यह विस्मय अन्यत्र कहाँ पर , हो सकता है हे धीमान् ॥५॥
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