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________________ भक्तामर स्तोत्र ] [ १५ हे अनिमेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम पवित्र । तोषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र ॥ चन्द्र-किरणसम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान । कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान ॥ ११ ॥ जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह । थे उतने वैसे अणु जग में, शांत राग-मय निस्संदेह ॥ हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण-रूप। इसीलिए तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ॥ १२ ॥ कहाँ आपका मुख अति सुन्दर, सुर-नर- उरग नेत्र- हारी । जिसने जीत लिए सब जग के, जितने थे उपमा धारी ॥ कहाँ कलंकी बङ्क चन्द्रमा, रंक समान कीट - सा दीन । जो पलाश-सा फीका पड़ता, दिन में होकर के छवि छीन ॥१३॥ तव गुण पूर्ण शशाङ्क कान्तिमय, कला-कलापों से बढ़के । तीन लोक में व्याप रहे हैं, जो कि स्वच्छता में चढ़के ॥ विचरें चाहे जहाँ कि उनको, जगन्नाथ का एकाधार । कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ॥१४ ॥ मद की छकीं अमर ललनायें, प्रभु के मन में तनिक विकार । कर न सकीं आश्चर्य कौनसा, रह जाती हैं मन को मार ॥ गिरि गिर जाते प्रलय पवन से, तो फिर क्या वह मेरु शिखर । हिल सकता है रंचमात्र भी, पाकर झंझावात प्रखर ॥१५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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