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भक्तामर स्तोत्र ]
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हे अनिमेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम पवित्र । तोषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र ॥ चन्द्र-किरणसम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान । कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान ॥ ११ ॥
जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह । थे उतने वैसे अणु जग में, शांत राग-मय निस्संदेह ॥ हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण-रूप। इसीलिए तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ॥ १२ ॥
कहाँ आपका मुख अति सुन्दर, सुर-नर- उरग नेत्र- हारी । जिसने जीत लिए सब जग के, जितने थे उपमा धारी ॥ कहाँ कलंकी बङ्क चन्द्रमा, रंक समान कीट - सा दीन । जो पलाश-सा फीका पड़ता, दिन में होकर के छवि छीन ॥१३॥
तव गुण पूर्ण शशाङ्क कान्तिमय, कला-कलापों से बढ़के । तीन लोक में व्याप रहे हैं, जो कि स्वच्छता में चढ़के ॥ विचरें चाहे जहाँ कि उनको, जगन्नाथ का एकाधार । कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ॥१४ ॥
मद की छकीं अमर ललनायें, प्रभु के मन में तनिक विकार । कर न सकीं आश्चर्य कौनसा, रह जाती हैं मन को मार ॥ गिरि गिर जाते प्रलय पवन से, तो फिर क्या वह मेरु शिखर । हिल सकता है रंचमात्र भी, पाकर झंझावात प्रखर ॥१५ ॥
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