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चौबीस तीर्थङ्कर स्तवन ]
[२४१ चौबीस तीर्थंकर स्तवन जो अनादि से व्यक्त नहीं था त्रैकालिक ध्रुव ज्ञायक भाव। वह युगादि में किया प्रकाशित वन्दन ऋषभ जिनेश्वर राव ॥१॥ जिसने जीत लिया त्रिभुवन को मोह शत्रु वह प्रबल महान। उसे जीतकर शिवपद पाया वन्दन अजितनाथ भगवान ॥२॥ काललब्धि बिन सदा असम्भव निज सन्मुखता का पुरुषार्थ। निर्मल परिणति के स्वकाल में संभव जिनने पाया अर्थ ॥३॥ त्रिभुवन जिनके चरणों का अभिनन्दन करता तीनों काल। वे स्वभाव का अभिनन्दन कर पहुँचे शिवपुर में तत्काल ॥४॥ निज आश्रय से ही सुख होता यही सुमति जिन बतलाते। सुमतिनाथ प्रभु की पूजन कर भव्य जीव शिवसुख पाते ॥५॥ पद्मप्रभ के पद-पंकज की सौरभ से सुरभित त्रिभुवन। गुण अनन्त के सुमनों से शोभित श्री जिनवर का उपवन ॥६॥ श्री सुपार्श्व के शुभ सु-पार्श्व में जिनकी परिणति करे विराम। वे पाते हैं गुण अनन्त से भूषित सिद्ध सदन अभिराम ॥७॥ चारु चन्द्र सम सदा सुशीतल चेतन चन्द्रप्रभ जिनराज। गुण अनन्त की कला विभूषित प्रभु ने पाया निजपद राज ॥८॥ पुष्पदन्त सम गुण आवलि से सदा सुशोभित हैं भगवान। मोक्षमार्ग की सुविधि बताकर भविजन का करते कल्याण ॥९॥ चन्द्र-किरण सम 'शीतल' वचनों से हरते जग का आताप। स्याद्वादमय दिव्यध्वनि से मोक्षमार्ग बतलाते आप ॥१०॥ त्रिभुवन के श्रेयस्कर हैं श्रेयांसनाथ जिनवर गुणखान। निज स्वभाव ही परम श्रेय का केन्द्र बिन्दु कहते भगवान ॥११॥ शतइन्द्रों से पूजित जग में वासुपूज्य जिनराज महान। स्वाश्रित परिणति द्वारा पूजित पञ्चमभाव गुणों की खान ॥१२॥
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