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दशलक्षण धर्म का मर्म ]
दशलक्षण धर्म का मर्म
(सोरठा)
क्षमा भाव अविकार, स्वाश्रय से प्रकटे सुखद । आनन्द अपरम्पार, शत्रु न दीखे जगत में ॥ १ ॥ मार्दव भाव सुधार, निज रस ज्ञानानंद मय। वेदूँ निज अविकार, नहीं मान नहीं दीनता ॥२॥ सरल स्वभावी होय, अविनाशी वैभव लहूँ । वांछा रहे न कोय, माया शल्य विनष्ट हो ॥३ ॥ परम पवित्र स्वभाव, अविरल वर्ते ध्यान में । नाशे सर्व विभाव, सहजहि उत्तम शौच हो ॥४॥ सत्स्वरूप शुद्धात्मा, जानूँ मानूँ आचरूँ । प्रकटे पद परमात्म, सत्य धर्म सुखकार हो ॥५ ॥
संयम हो सुखकार, अहो अतीन्द्रिय ज्ञानमय । उपजे नहीं विकार, परम अहिंसा विस्तरे ॥६॥ निज में ही विश्राम, जहाँ कोई इच्छा नहीं । ध्याऊँ आतमराम, उत्तम तप मंगलमयी ॥७॥ परभावों का त्याग, सहज होय आनन्दमय। निज स्वभात्र में पाग, रहूँ निराकुल मुक्त प्रभु ॥८ ॥ सहज अकिंचन रूप, नहीं परमाणु मात्र मम । भाऊँ शुद्ध चिद्रूप, होय सहज निर्ग्रथ पद ॥९ ॥ परम ब्रह्म अम्लान, ध्याऊँ नित निर्द्वन्द हो । ब्रह्मचर्य सुख खान, पूर्ण होय आनंदमय ॥१० ॥ एकरूप निज धर्म, दशलक्षण व्यवहार से । स्वाश्रय से यह मर्म, जाना ज्ञान विरागमय ॥
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