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महावीराष्टक ]
तब अचरज क्या यदि पाते हैं सच्चे भक्त मोक्ष का द्वार। वे तीर्थङ्कर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ।।४।। तसस्वर्ण-सा तन है, फिर भी तनविरहित जो ज्ञानशरीरी। एक रहें होकर विचित्र भी, सिद्धारथ राजा के वीर।। होकर भी जो जन्मरहित हैं, श्रीमन् फिर भी न रागविकार। वे तीर्थङ्कर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ।।५ ॥ जिनकी वाणीरूपी गङ्गा नयलहरों से हीन-विकार। विपुल ज्ञान-जल से जनता का करती हैं जग में लान॥ अहो आज भी इससे परिचित ज्ञानीरूपी हंस अपार । वे तीर्थङ्कर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥६॥ तीव्रवेग त्रिभुवन का जेता काम-योद्धा बड़ा प्रबल। वयकुमार में जिनने जीता उसको केवल निज के बल॥ शाश्वत सुख शांति के राजा बनकर जो हो गये महान। वे तीर्थङ्कर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ।।७।। महामोह-आतंक शमन को जो हैं आकस्मिक उपचार । निरापेक्ष बन्धु हैं जग में जिनकी महिमा मङ्गलकार ॥ भवभय से डरते संतों को शरण तथा वर गुण भण्डार। वे तीर्थकर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥८॥
(दोहा) महावीराष्टक स्तोत्र को, 'भाग' भक्ति से कीन। जो पढ़ ले एवं सुने, परमगति हो लीन ।
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