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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह निरापेक्षो बंधुर्विदित-महिमा मङ्गलकरः॥ शरण्यः साधूनां भव-भय-भृतामुत्तम-गुणो। महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे(न:) ॥८॥
(अनुष्टुप) महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या भागेन्दुना कृतम्। यः पठेच्छृणुयाच्चापि स याति परमां गतिम् ।।
महावीराष्टक (पद्यानुवाद) जिनके चेतन में दर्पणवत् सभी चेतनाचेतन भाव। युगपद् झलकें अंत-रहित हो ध्रुव-उत्पाद-व्ययात्मक भाव। जगत्साक्षी शिवमार्ग-प्रकाशक जो हैं मानों सूर्य-समान। वे तीर्थङ्कर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥१॥ जिनके लोचनकमल लालिमा-रहित और चंचला-हीन। समझाते हैं भव्यजनों को बाह्याभ्यन्तर क्रोध-विहीन॥ जिनकी प्रतिमा प्रकट शांतिमय और अहो है विमल अपार। वे तीर्थङ्कर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥२॥ नमते देवों की पङ्क्ति की मुकुट-मणि का प्रभासमूह। जिनके दोनों चरण-कमल पर झलके देखो जीव-समूह ॥ सांसारिक ज्वाला को हरने जिनका स्मरण बने जलधार। वे तीर्थङ्कर महावीर प्रभु मम हिय आवें नयनद्वार ॥३॥ जिनके अर्चन के विचार से मेंढक भी जब हर्षितवान। क्षणभर में बन गया देवता गुणसमूह और सुक्खनिधान॥
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