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सामायिक पाठ ]
[१५९ जाके वंदन थकी वंद्य होवें सुरगन के । ऐसे वीर जिनेश वंदिहूँ क्रमयुग तिनके ॥२४॥ सामायिक षट्कर्ममाहिं वंदन यह पंचम। वंदों वीर जिनेन्द्र इंद्रशतवंद्य वंद्य मम ॥ जन्ममरण भय हरो, करो अघ शांति शांतिमय। मैं अघकोष सुपोष दोष को दोष विनाशय ॥२५॥
॥ षष्टम कायोत्सर्ग कर्म॥ कायोत्सर्ग विधान करूँ अंतिम सुखदाई। काय त्यजनमय होय काय सब को दुखदाई॥ पूरब दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम उत्तर मैं। जिनगृह वंदन करूँ हरूँ भव पाप तिमिर मैं ॥२६॥ शिरोनती मैं करूँ नमूं मस्तक करि धरिकैं। आवर्तादिक क्रिया करूँ मन-वच-मद हरिकैं। तीनलाक जिन भवन माहिं जिन हैं जु अकृत्रिम। कृत्रिम हैं द्वय अर्द्धदीपमाहिं वंदों जिम ॥२७॥ आठ कोडि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याण। चार शतक पर असी एक जिनमन्दिर जाएँ। व्यंतर ज्यातिषि माहिं संख्यरहिते जिनमंदिर। ते सब वंदन करूँ हरहु मम पाप संघकर ॥२८॥ सामायिक सम नाहिं और कोउ बैर-मिटायक। सामायिक सम नाहिं और कोउ मैत्रीदायक। श्रावक अणुव्रत आदि अंत सप्तम गुणथानक। यह आवश्यक किये होय निश्चय दुख हानक ॥२९॥ जे भवि आतम काज करण उद्यम के धारी। ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी॥ राग-द्वेष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब। बुध महाचन्द्र विलाय जाय तातें कीज्यो अब ॥३०॥
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