________________
१५४]
[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे। गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ॥६॥ कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे। लाखों वर्षों तक जीऊँ या, मृत्यु आज ही आ जावे। अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आवे। तो भी न्याय-मार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे ॥७॥ होकर सुख में मग्न न फूलैं, दुख में कभी न घबरावें। पर्वत नदी श्मसान-भयानक, अटवी से नहिं भय खावें। रहे अडोल-अकम्प निरन्तर, यह मन दृढ़तर बन जावें। इष्ट-वियोग अनिष्ट-योग में, सहनशीलता दिखलावें॥८॥ सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे। बैर-भाव अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे॥ घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावे। ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना, मनुज जन्म फल सब पावै॥९॥ ईति-भीति व्यापे नहिं जग में, वृष्टि समय पर हुआ करै। धर्म-निष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करै। रोग-मरी-दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करै। परम अहिंसा धर्म जगत में, फैल सर्व हित किया करै ॥१०॥ फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करै। अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहिं, कोई मुख से कहा करै। बनकर सब 'युगवीर' हृदय से, देशोन्नति रत रहा करै। वस्तु स्वरूप विचार खुशी से, सब दुख संकट सहा करै ॥११॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org