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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि कुल बहुघात करायो। नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये ॥२४॥ अन्नादिक शोध कराई, तामें जु जीव निसराई। तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया ॥२५॥ पुनि द्रव्य कमावन काजै, बहु आरम्भ हिंसा साजै। किये तिसनावश अघ भारी, करुणा नहिं रंच विचारी ॥२६॥ इत्यादिक पाप अनन्ता, हम कीने श्री भगवंता। सन्तति चिरकाल उपाई, वाणी तैं कहिय न जाई ॥२७॥ ताको जु उदय अब आयो, नानाविध मोहि सतायो। फल भुंजत जिय दुःख पावे, वचः कैसे करि गावै॥२८॥ तुम जानत केवलज्ञानी, दुःख दूर करो शिवथानी। हम तो तुम शरन लही है, जिन तारन विरद सही है ॥२९॥ इक गाँवपति जो होवे, सो भी दुःखिया दुःख खोवे। तुम तीन भुवन के स्वामी, दु:ख मेटो अन्तरजामी ॥३०॥ द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो। अंजन से किये अकामी, दुःख मेटो अन्तरजामी ॥३१॥ मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद निहारो। सब दोष रहित करि स्वामी, दुःख मेटहु अन्तरजामी ॥३२॥ इन्द्रादिक पद नहिं चाहूँ, विषयनि में नाहिं लुभाऊँ। रागादिक दोष हरीजे, परमातम निज पद दीजे ॥३३॥
(दोहा) दोष रहित जिनदेवजी, निजपद दीजो मोय। सब जीवन के सुख बढ़े, आनंद मंगल होय॥३४॥ अनुभव माणिक पारखी, 'जौहरी' आप जिनन्द। ये ही वर मोहि दीजिये, चरन शरन आनन्द ॥३५॥
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