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आलोचना पाठ ]
[१५१ अनंतानुबन्धी जु जाने, प्रत्याखान अप्रत्याख्यानो। संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश सुनिये ॥१२॥ परिहास अरति रति शोक, भय ग्लानि त्रिवेद संयोग। पनवीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम ॥१३॥ निद्रावश शयन कराई, सुपनन मधि दोष लगाई। फिर जाग विषयवन धायो, नानाविध विषफल खायो॥१४॥ आहार विहार निहारा, इनमें नहीं जतन विचारा। बिन देखी धरी उठायी, बिन शोधी वस्तु जु खायी ॥१५॥ तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकल्प उपजायो। कछु सुधि-बुधि नाहिं रही है, मिथ्यामति छाय गयी है॥१६॥ मरयादा तुम ढिंग लीनी, ताहु में दोष जु कीनी। भिन्न-भिन्न अब कैसे कहिये, तुम ज्ञान विर्षे सब पइये ॥१७॥ हा हा मैं दुठ अपराधी, त्रस जीवन राशि विराधी। थावर की जतन न कीनी, उर में करुणा नहिं लीनी ॥१८॥ पृथ्वी बहु खोद कराई, महलादिक जागा चिनाई। पुनि विन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखा रौं पवन विलोल्यो॥१९॥ हा हा मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी। तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनन्दा ॥२०॥ हा हा परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई। तामधि जे जीव जु आये, ते हू परलोक सिधाये ॥२१॥ बींध्यो अन्न राति पिसायो, ईंधन बिन सोधि जलायो। झाडू ले जागा बुहारी, चींटी आदिक जीव विदारी ॥२२॥ जल छान जिवानी कीनी, सोहू पुनि डारि जु दीनी। नहिं जलथानक पहुँचाई, किरिया बिन पाप उपाई ॥२३॥
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