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भावना द्वात्रिंशतिका ]
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बाह्य जगत कुछ भी नहिं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं । यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें ॥ २४ ॥ अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास । जग का सुख तो मृगतृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ ॥२५ ॥ अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञानस्वभावी है जो कुछ बाहर है सब पर है, कर्माधीन विनाशी है ॥२६ ॥ तन से जिसका ऐक्य नहीं, हो सुत तिय मित्रों से कैसे । चर्म दूर होने पर तन से, रोम समूह रहें कैसे ॥२७ ॥ महा कष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ जड़ देह संयोग । मोक्ष महल का पथ है सीधा, जड़-चेतन का पूर्ण वियोग ॥२८ ॥ जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़ । निर्विकल्प निर्द्वन्द्व आत्मा, फिर-फिर लीन उसी में हो ॥ २९ ॥ स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते ॥३०॥ अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी । 'पर देता है' यह विचार तज, स्थिर हो छोड़ प्रमादी धी ॥३१ ॥
निर्मल सत्य शिवं सुन्दर है, 'अमितगति' वह देव महान । शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण ॥ ३२ ॥
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